अमानवीयतावादी प्रवृत्ति है, जो संस्कार नहीं है ।
ब्रह्मानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से संपन्न होने पर्यन्त गुणात्मक संस्कारपूत होना आवश्यक है । यही अभ्यास पूर्वक अभ्युदय का प्रमाण है ।
समाज ही व्यक्ति के संस्कारों के परिमार्जन, परिवर्तन और प्रस्थापन का कारण है । अभ्युदयकारी अध्ययन, व्यवस्था एवं तदनुसार आचरण ही समाज है ।
समाज ही व्यवस्था एवं शिक्षा पूर्वक कृत्रिम वातावरण को उत्पन्न करता है ।
प्राकृतिक वातावरण की तुलना में मानवकृत वातावरण संस्कार आरोपण क्रिया में विशिष्ट सशक्त कारण है । मानवेतर सृष्टि की प्राकृतिक वातावरण संज्ञा है ।
मानवेत्तर प्रकृति का उत्पादन पूर्वक उपयोग, सद्उपयोग, प्रयोजन पूर्वक पोषण जागृत मानव करता है । वह उसको अपने उत्पादन के निमित्त कच्चे पदार्थ के रूप में प्रयुक्त करता है।
भ्रमित चैतन्य पक्ष द्वारा जड़ पक्ष में बलात् ग्रहण और इतर चैतन्य इकाइयों पर विचार पूर्वक आक्रमण या संक्रमण होता है । साथ ही ज्ञान, विवेक और विज्ञान पूर्वक सामाजिक एवं सहअस्तित्व पूर्ण होता है ।
सामाजिकता की स्थापना आक्रमण अथवा बल प्रयोग से संभव नहीं है अपितु जागृति के लिए अपेक्षित उच्च अथवा गुणात्मक संस्कारों द्वारा ही यह संभव एवं सुलभ है ।
स्वभाव से ही सामाजिकता का मूल्याँकन होता है । उसी (स्वभाव) के आधार पर, उसी के लिए, उसी को सुसंस्कारों से सम्पन्न करने के लिए ही अध्ययन है ।
अध्ययन की पुष्टि, प्रकाशन, प्रचार, प्रदर्शन से है । इसकी सफलता या असफलता सामाजिकता के संरक्षण के लिए की गयी शिक्षा व व्यवस्था पर आधारित है ।
मानवीयता तथा अतिमानवीयता से संपन्न प्रत्येक मानव इकाई के स्वभाव को अविच्छिन्न बनाने योग्य वातावरण का निर्माण करना, शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्योपांत कार्यक्रम है । यही आप्तों की आकाँक्षा है ।