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चैतन्य पुँज ही वैचारिक दातव्यता है । दातव्यता का अर्थ है देने की प्रवृत्ति । प्रकट होने-रहने की प्रवृत्ति है ।

सूक्ष्म शरीर जिस आकार-प्रकार वाले शरीर को माध्यम बनाकर आस्वादन क्रिया में रत रहता है, सदैव उससे अधिक आस्वादन सुख ले सकने की कल्पना करता है ।

इसी क्रम में मानव शरीर का भी प्रादुर्भाव हुआ है । इससे अधिक की संभावना नहीं है। भोग पदार्थों को एकत्रित करने में सुख की निरंतरता सिद्ध नहीं होती है । इसके साथ यह भी ज्ञात हो गया है कि ब्रह्मानुभूति ही परमानंद सहज निरंतरता है ।

प्राणयुक्त कोशिकायें जो मानव शरीर की रचना में व्यस्त एवं क्रियाशील है, सूक्ष्म शरीर के निर्देशानुसार आकार प्रदान करने के लिए प्रयासरत है ।

पदार्थावस्था गति पूर्वक सापेक्ष रूप में परिणामशील है ।

गति पूर्वक परिणामशील पदार्थ ही वातावरण के दबाव से गुणात्मक परिवर्तन को पाकर प्राण युक्त कोशिकाओं के रूप में प्रसवित होता है । प्राणयुक्त कोशिकाएँ वातावरण; स्व-क्षमता व अवसर के योगफल स्वरूप रचनारत है । यही वनस्पति सृष्टि के रूप में प्रत्यक्ष है ।

जीवात्माओं की शरीर रचना भी प्राण कोशिका समूह से निर्मित होती है । इस रचना में मेधस एक विशिष्ट भाग समाहित रहता है जिसे प्राणावस्था में नहीं पाया जाता है । ऐसे शरीर द्वारा जीवात्मा आशापूर्वक भोगों में व्यस्त रहता है, जो प्रत्यक्ष है ।

वातावरणानुसार जीवात्मा के शरीर तथा उनकी आशा में परिवर्तनशीलता प्रत्यक्ष होती है । यही प्रक्रिया विषय-परिणाम को प्रकट करती है ।

जीवात्मा एवं ज्ञानात्मा के शरीर संरचना में अधिकांश समानता रहते हुए भी ज्ञानात्मा के शरीर में जीवात्मा की अपेक्षा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धेन्द्रियों में विशिष्टताएं हैं ही । ऐसे शरीर द्वारा प्रत्येक ज्ञानात्मा उत्पादन, व्यवहार, व्यवसाय, उपयोग, उपभोगात्मक क्रियाकलापों को स्वयं के आशा, विचार, इच्छा संकल्पानुरूप करता है, तदनुसार उसमें वैचारिक परिवर्तन-

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