मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि की सम-विषमात्मक अतिरेक का नियंत्रण मध्यस्थ क्रिया (आत्मा) में है, इसलिए उसका अनुभवानुशासन प्रसिद्ध है ।
अनुभवानुशासन ही प्रबुद्धता है ।
प्रबुद्धता ही सतर्कता है ।
यही अभयता, सामाजिकता, सहअस्तित्व, अभ्युदय एवं प्रबुद्धता है ।
सजगता एवं सतर्कता ही प्रबुद्धता का प्रत्यक्ष रूप है । पाण्डित्य-पूर्ण सतर्कता ही बौद्धिक समाधान है यही व्यवहार में निर्वाह क्षमता तथा व्यवसाय में कुशलता एवं निपुणता पूर्ण योग्यता है ।
सजगता ही अनुभव क्षमता और सतर्कता ही समाधान क्षमता है । शिक्षा प्रणाली एवं व्यवस्था पद्धति में सतर्कता योग्य क्षमता को जन सामान्य बनाने की व्यवस्था है ।
किसी अंश में सजगता एवं सतर्कता ज्ञानावस्था की इकाई में पाई जाने वाली अविभाज्य क्षमता है जिसकी पूर्णता के लिए वह विवश है । उसकी पूर्णता ही जागृति है जो मानवीयता एवं अतिमानवीयता है ।
मानवीयता एवं अतिमानवीयता ही आनंद है । मानवीयता ही सामाजिक कार्यक्रम का आधार है अतिमानवीयता पर्यन्त जीवन का कार्यक्रम है । अमानवीयता व्यतिक्रम है ।
ज्ञानावस्था ही निर्भ्रमता सहज निकटतम पद है ।
ज्ञानावस्था सहज धर्म ही आनंद है ।
चैतन्य इकाई सहज प्रथम साधन शरीर ही है ।
शरीर की सीमा में जो जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति है, वह विषय व राग की सीमा में गण्य है। शरीर का संचालक (चैतन्य क्रिया) संचालन क्रिया को रोकता है या कम करता है तब शरीर निद्रा में रत होता है ।