अन्य सभी साधन शरीर द्वारा निर्मित है जो सामान्य एवं महत्वाकाँक्षा में उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।
साधन साध्य नहीं है । साध्य के लिये साधन आवश्यक है ।
संपूर्ण अविकसित, विकसित के लिये साधन व विकसित अविकसित के लिए उपयोगी है क्योंकि विकसित अविकसित में पूरकता सूत्र वर्तमान रहता है । साधन को साध्य समझना ही अज्ञान है ।
जड़ में चिंतन क्रिया नहीं है ।
प्रत्यक्ष से अधिक अनुमान क्षमता ही चिंतन का प्रधान लक्षण है । यह क्रम तब तक रहेगा जब तक समग्र प्रकृति के प्रति रहस्यता का अभाव न हो जाए । जो जिसके अस्तित्व के प्रति निर्भ्रम न होते हुए भी उसके अस्तित्व को स्वीकारता है, वही अनुमान है ।
चैतन्य इकाई ही अनुभव पूर्वक जागृत है ।
दिव्य मानव पूर्ण जागृत, देव मानव तथा मानव जागृत, अमानवीय मानव अल्प जागृत तथा जीव मात्र अजागृत है । मानव जागृत का तात्पर्य क्रिया पूर्णता में जागृत, देवमानव जागृत का तात्पर्य क्रियापूर्णता में परिपूर्ण व आचरण पूर्णता में जागृत एवं दिव्य मानव पूर्ण जागृत का तात्पर्य क्रिया व आचरणपूर्णता में परिपूर्ण व प्रमाण । अनुभव का संपूर्ण प्रकटन ही मानव, देवमानव और दिव्य मानव कोटि में गण्य है ।
चैतन्य पद के अनंतर ही जागृति और सतर्कता की बाध्याताएं है ।
सतर्कता ही विवेक है, यही आत्मा का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व एवं व्यवहार के नियम का निर्णय करने योग्य योग्यता, क्षमता एवं व्यवहार करने योग्य योग्यता है ।
सतर्कता की अंतिम उपलब्धि समाधान है । सजगता की अंतिम उपलब्धि ही परमानंद है, जिसमें निरंतरता है ।
स्वयं की ब्रह्म में ओत-प्रोत स्थिति, सत्य-ज्ञान में निरंतरता ही परमानंद है ।