अनुसार वर्तमान में मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्वाद के अनुसार स्पष्ट हो जाता है इसे हर मानव जाँच परख सकता है, कर्माभ्यास पूर्वक प्रमाणित कर सकता है।
हर मानव संवाद के लिए इच्छुक है संवाद में परस्पर भरोसा करना भी आवश्यकता है। भरोसा इस बात का है कि संवाद से हम निश्चित ठौर तक पहुँच पाते हैं। यह परस्पर मानव में व्यक्तित्व पर निर्भर रहता है। व्यक्तित्व आहार विहार व्यवहार के रूप में पहचानने में आता है। इस क्रम में मानव द्वारा एक दूसरे को पहचानने का अभ्यास सर्वाधिक रूप में सार्थक हो चुका है। अर्थात् हर मानव में अपने-अपने तरीके से जाँचने की विधि बन चुकी है यह मानव कुल के उत्थान की एक यथा स्थिति है। यह यथास्थिति स्वयं आगे की यथास्थिति के लिए आधार है ही। इसलिए मानव संवाद पूर्वक ही यथास्थिति तक, सत्यता तक, यथार्थता तक, वास्तविकता तक पहुँच पाता है। पहुँच पाने का मतलब स्वीकृत होने और प्रमाणित होने से है। इस क्रम में हम मानव आसानी से स्वीकार सकते है, मंगल मैत्री पूर्वक संवाद कार्य को परिवार से चलकर विश्व परिवार तक व्यवस्थित विधि से सम्पन्न कर सकते हैं। इसकी आवश्यकता सदा-सदा से सदा-सदा तक बनी ही रहेगी।
जनचर्चा में सामाजिक सूत्रों का उद्घाटन :
मानव की परस्परता में संवाद एक स्वाभाविक क्रिया है। आशय व तथ्यों के प्रति विश्वास जताना और परस्परता में स्वीकृति की एकरूपता को पहचान पाना ही, परस्परता में दृढ़ विश्वास का आधार होता है। जिसकी निरन्तरता पर भरोसा होता है यही विश्वास है। ऐसा विश्वास हर मानव की परस्परता में आवश्यक है ही। जिससे निरन्तर वांछित तथ्यों के साथ जीने की संभावनाओं को सूत्रित कर देता है। यही समाज का सूत्र भी है इसी जनसंवाद विधि से, अध्ययन विधि से, परीक्षण विधि से हम विश्वास करने योग्य हो जाते हैं। जिस आशय से संवाद करते हैं उन-उन सूत्रों से अवगत होना बन जाता है। उसके अनन्तर प्रमाणित होना भी बन जाता है। प्रमाणित होने की इच्छा सर्वमानव में निहित है ही।
व्यवहार सूत्रों को प्रमाणित करना उद्देश्य है उसके मूल में मानव की परस्परता में ही व्यवहार होना पाया जाता है। सम्पूर्ण व्यवहार और कार्य मानव मानव के साथ और प्रकृति के साथ करता है। इन सबका फल परिणाम मानव व्यवस्था में अपनी पहचान को स्थापित करना ही है। यही स्वराज्य व्यवस्था का सूत्र है। इस प्रकार हम अपने वैभव को अर्थात् मानव में, से, के लिए होने