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वास्तविकता है। अवगत रहना आवश्यक है। अवगत होने का तात्पर्य आवश्यकीय पद्धति, प्रणाली से विदित रहने से है। ऐसे अवगत होने के मूल में सहअस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान मूल वस्तु के रूप में पहचाना गया है। इसके विधिवत अध्ययन चलते हर परिस्थिति में, हर आयाम कोण में विधिवत प्रस्तुत होना बन जाता है जिससे जागृति और जागृति की महिमा प्रमाण में प्रस्तुत हो जाये। यथार्थताएँ यही है। मानव व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना यथार्थता है। स्वभाव गति वास्तविकता है। सत्यता अपने स्वरूप में सहअस्तित्व विधि से नित्य वर्तमान ही है। इन्हीं सत्यता के आधार पर यथार्थता वास्तविकताएँ निरन्तर उदयमान प्रकाशमान है। इसे समझने का अधिकार केवल मानव में ही है। इसे पूर्णतया हृदयंगम कराने के लिए मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद प्रस्तुत है।

जन चर्चा में मानवाकाँक्षा का प्रबल स्थान :

सर्वमानव संवाद करने योग्य इकाई होना सुस्पष्ट हो चुका है। संवाद का अंतिम लक्ष्य मानवाकाँक्षा का पहचान होना और उसे प्रमाणित करना ही है। मानवकाँक्षा के स्थान पर समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ही प्रमाण है। इसे प्रमाणित करना मानव में, से, के लिए परम आवश्यक है। मानव सदा-सदा अपने में संतुष्ट होने के अर्थ में सारा संवाद और अध्ययन करता है कार्य और व्यवहार भी करता है। पाने की स्थली में रिक्त रहने के स्थान पर ही लक्ष्य के अर्थ में संवाद प्रबल कारण होना पाया जाता है। सभी देशकाल परिस्थिति में सदा-सदा से मानव लक्षयान्वेषी रहा है। यही एक महत्वपूर्ण सूत्र मानव मन में घर किये आया है। इसी सूत्र के आधार पर मानव अपने को अध्ययन में लगाता है फलस्वरूप संवाद भी करता है। संवाद और अध्ययन के आधार पर ही निष्कर्ष निकलता है। जब कभी भी निष्कर्ष निकलता है तब मानवकाँक्षा अथवा मानव लक्ष्य से सूत्रित होना होता है। जैसे कोई भी संवाद अध्ययन, समाधान तक पहुँचने के पहले तृप्ति बिन्दु मिलता नहीं है। अतृप्ति स्वयं पुन: शोध का कारण बना। इससे यह पता चलता है शोध के अनन्तर शोध गम्य स्थली तक पहुँच सके। अतएव निष्कर्ष यही है जनचर्चा अथवा संवाद, विमर्श, विश्लेषण, विवेचनाएँ समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व से सूत्रित होने से ही है। इसे सार्थक रूप पहचान करने के लिए मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद प्रस्तुत है।

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