के प्रमाण को व्यवस्था में, व्यवहार में प्रमाणित करना देखा गया है। ऐसे प्रमाण के साथ हर मानव जागृति के फलन में, समझदारी में ही समझदारी की महिमा के रूप में अथवा फलन के रूप में समाधान सम्पन्न हो जाता है यही संवाद का प्रयोजन है।
जनचर्चा में सहअस्तित्व की अपेक्षा :
जनसंवाद के मूल में एक से अधिक व्यक्तियों का होना सर्वविदित है। चर्चा यदि किसी झाड़, पत्थर के साथ करते हैं तब आदमी के संतुलन के बारे में सोचना बनता है। ऐसे सोचने में ऐसा भी देखा गया है झाड़, पत्थर, इमारतों के साथ चित्र, मूर्ति के सामने जितनी भी प्रार्थना की जाती है वह सब पूजा पाठ के नाम से पहचाना गया है। वार्तालाप जो झाड़ पत्थर के साथ करता है यह सब प्रलाप कहलाता है। व्यक्ति में प्रलाप का पहचान, मानव में रोगी मानसिकता के रूप में पहचाना है। वह भी आयुर्वेद के अनुसार अति त्रिदोष होने से प्रलाप करता है ऐसा लिखा है। देखने में भी ऐसा लगता है। अज्ञान से भी प्रलाप होता है।
हर मानव अपने को रोगी होना स्वीकारता नहीं है। स्वस्थता की अपेक्षा सबमें निहित है। स्वस्थता का तात्पर्य स्वस्थ मानव शरीर के द्वारा जागृति प्रमाणित होना है। शरीर के द्वारा प्रमाणित होने का तात्पर्य परिवार व्यवस्था में प्रमाणित होना और समग्र व्यवस्था में प्रमाणित होना है।
इससे यह पता चलता है मानव संवाद मानव के साथ ही सार्थक होना पाया जाता है। इसी बीच कुछ ऐसी भी घटना देखी गई हैं कि जीव जानवरों के साथ भी मानव अपना सम्भाषण करता है। इस संवाद में स्वयं को बोलना होता है और उसके उत्तर स्वयं ही स्वीकार लेना होता है। इस विधा में ऐसा भी देखा गया है मानव ने जो कहा उसके आधार पर उत्तर स्वीकारा गया। जैसे तोता, मैना, कुत्ता, बिल्ली, गाय, घोड़ा, बाघ, भालू सब के साथ मानव अपने संकेतों को प्रसारित करता है इसके बदले में वह संकेतों के अनुसार अनुकरण कर दिया उसे सार्थक मान लेते हैं। मानव के संकेतों को जीव जानवर ग्रहण करते हैं निष्कर्ष निकलता है कि सार्थक संवाद मानव मानव के ही साथ कर पाता है इसे भली प्रकार देखा गया है। दूसरे किसी से सार्थक हो ही नहीं सकता है। मानव में यही विशेषता है समझने और फल परिणाम में एकरूपता आ जाती है यही समाधान है। समाधान के लिए सम्पूर्ण जनचर्चा है।