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उत्सवों का आयोजन सदा-सदा से ही रहा है। ऐसे उत्सव इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ तक भय और प्रलोभन, अपराध और श्रृंगारिकता की सीमा में सिमटता गया है। अपराध सामाजिक सूत्रों से सूत्रित नहीं हो पाता है साथ में श्रृंगारिकता भी सामाजिक सूत्रों से सूत्रित नहीं हो पाती है इस इक्कीसवीं सदी तक हम मानव श्रृंगारिकता और अपराध को रोमांचकता का आधार मानते आये हैं। रोमांचकता अपने आप में उत्साह माना जाता है। जबकि उत्सवित होने का तात्पर्य वास्तविकता, यथार्थता, सत्यता को उद्घटित करना ही है। इन सत्यों की कसौटी के आधार पर अपराध और श्रृंगारिकता का मूल्याँकन कर पाते है। इन दोनों के साथ उत्सवों को हम जोड़ते रहे इसी के साथ भय प्रलोभन को जोड़ते रहे। यह सभी प्रयास असामाजिकता के रूप में प्रदर्शित हुई। अन्तत: प्रयासों की निरर्थकता मान लेने की स्थली पर पहुँच रहे हैं। इसका निराकरण यथार्थ रूप में मानव की स्वभाव गति, समझदारी, समाजगति, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही है। इस प्रकार यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता ही उत्सव का आधार है।

जनचर्चा में क्रीड़ा विनोद की परिकल्पना :

भ्रमित मानव परम्परा में क्रीड़ा, विनोद, व्यंग विधाओं में चर्चा होना, हँसी मजाक से अन्त होना अथवा द्वेष, गाली, गलौच में अन्त होना पाया जाता है। सार्थकता की विधि से क्रीड़ा विधा को सोचने पर और चर्चा करने पर यही निकलता है क्रीड़ा विधि स्वास्थ्य वर्धन के लिए अनुकूल कार्यक्रम है। क्रीड़ा को व्यापार से जोड़ने पर भी मानव का हित नहीं हो पाया। विनोद नौटंकी भी व्यापार से जोड़ा गया इससे भी मानव का उपकार नहीं हुआ। यह तो पहले से ही मानव को विदित है व्यापार शोषण का ही कार्यक्रम है। विनोद नौटंकी, मंचन, कला, प्रदर्शन आज की ही विधि में टी.वी. फिल्म इन सभी विधा में आदमी व्यापार से जुड़कर बहुत कुछ प्रस्तुत किया है। उक्त प्रयासों से जितने भी माध्यमों से प्रस्तुत हुआ। यह सब का सब सर्वाधिक रूप में अपराध और श्रृंगारिकता के रूप में प्रस्तुत हुआ है। श्रृंगारिकता भोग उन्माद के अर्थ में मानव के सम्मुख पेश है मानव जाति में इस इक्कीसवीं सदी के पहले वर्ष तक सर्वाधिक लोग इसके दीवाने होते हुए देखे गये। इसका मतलब हम मानव की सर्वाधिक मानसिकता भोग उन्माद में ही लिप्त रहना पाया गया है। इसके लिए संग्रह सुविधा का उत्पादन शनै: शनै: बढ़ गया इसके बावजूद कहीं ठौर नहीं मिल पाया। इस बीच मध्यस्थ दर्शन सह अस्तित्ववाद प्रेरणा देने में प्रस्तुत हो गई। हर नर-नारी अपनी प्रतिभा को स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी में संगीत और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवसाय में स्वावलम्बन, व्यवहार में

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