जनचर्चा में मूल्याँकन का स्थान और प्रयोजन :
यह तथ्य हमें विदित हुआ है जनमानस संवाद के लिए है ही, यह हर मानव में कमोवेश सर्वेक्षित है। हर मानव संवाद किसलिए करता है, अपनी पहचान बनाने के लिए करता है अथवा ज्ञानार्जन करना है कराना है। इन्हीं आशयों के आधार पर मानव परस्परता में जन संवाद होना पाया जाता है। हर मानव सार्थकता को चाहता ही है, सार्थकता को सुनिश्चित करना एक आवश्यकता है।
मूल्याँकन मानव परम्परा की एक अनिवार्य प्रक्रिया प्रणाली है। हम मानव सुविधाजनक विधि से सुविधा के लिए मूल्याँकन करना चाहते हैं। सुविधा का मतलब भौतिक सुविधा न होकर मानसिक सुविधा से है। मानसिक सुविधा का तात्पर्य समाधान तक पहचान होना है। मानव और समाधान, मानव और न्याय, मानव और नियंत्रण, मानव और मानव लक्ष्य के आधारों पर मूल्याँकन होता है। इस मूल्याँकन का आधार मानव लक्ष्य को पहचाना जाता है। इसी में मानव लक्ष्य के आधार पर होना, बाकी विधाएँ उसमें समा जाती है। मानव का जाँच समझदारी से व्यवस्था में जीना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना, उसके फल परिणाम समझदारी जाँच पाना, यही मूल्याँकन विधि है ऐसा मूल्यांकन हर मानव की अपेक्षा है। इसी के साथ हर वस्तुओं का मूल्यांकन उपयोगिता के आधार पर कर पाना यही सम्पूर्ण मूल्यांकन का तात्पर्य है। ऐसा मूल्यांकन मानव परम्परा में कितना महत्वपूर्ण है इसे समझ सकते है। समाज में मूल्यांकन एक सहज धारा है क्योंकि मानव परम्परा में एकता और अखंडता का ओतप्रोत प्रमाण और व्याख्या है। व्याख्या के निचोड़ में मूल्याँकन स्वरूप बन जाती है। सार रूप में मूल्यांकन हर मानव को स्वीकार होता है इसलिए मानव की परस्परता में मूल्यांकन एक अनुपम कार्यक्रम है।
जनचर्चा में समीक्षा का स्थान और आवश्यकता :
समीक्षा अपनी परिभाषा में पूर्णता के अर्थ में निरीक्षण, परीक्षण और उसका उद्घाटन अर्थात् अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा और प्रकाशन है। यह प्रक्रिया विगत में बीती हुई परम्परा का ही वर्णन है अथवा घटनाओं का वर्णन है। इसका सुस्पष्ट स्वरूप मानव परम्परा में घटित संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था की समीक्षा हो पाती है। समीक्षा में मूल्याँकन का अर्थ समाहित रहता ही है। मूल्यांकन में सार्थकता-असार्थकता को स्पष्ट देखना बना रहता है। सार्थकता का स्वरूप परम्पराओं में अभी तक ज्ञान विज्ञान के रूप में पहचाना गया है इसी के साथ विवेक को पहचानने