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सामरिक तंत्र और यंत्र ही है। इसका दूसरा भाग संग्रह -सुविधा, भोग, अतिभोग, बहुभोग ही है। अथवा इसी ओर है। संग्रह, सुविधा भोग के आधार पर जिन्हें विकसित देश बता रहे है उसकी सार्वभौमता के लिए हर व्यक्ति-परिवार उतना सुविधा-संग्रह और खर्च करने की आवश्यकता इच्छा करता ही है जबकि सबको सुविधा संग्रह समान मात्रा से मिल नहीं सकती। इस विधि से विकास तंत्रणा कहाँ पहुँचा? इसका उत्तर कौन देगा? कौन जिम्मेदार है? राष्ट्रसंघ जिम्मेदार है? या विकसित देश जिम्मेदार है? यही दो तबके अपने को सर्वाधिक-अधिकाधिक विकसित होने का सत्यापन प्रस्तुत किये है। जबकि विकास का मापदंड संग्रह-सुविधा के आधार पर अथवा भक्ति विरक्ति के आधार पर सर्वसम्मत नहीं हो पाते हैं।

सुदूर विगत से, क्रमागत विधि से आई जनचर्चा, शिक्षा, विविध माध्यम भौतिकवादी और ईश्वरवादी मान्यताओं, घटनाओं के आधार पर नकारात्मक, सकारात्मक विधि से निर्णय लेते रहे। इस बीच बहुत सारे यांत्रिक घटनाएँ प्रकृति सहज उर्मियाँ मानव को कर्माभ्यास में करतलगत हुई जैसे दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूरगमन जैसी दूरसंचार विधियाँ विविध उपक्रमों से स्थापित हो गई। इसकी शिक्षा विधि भी सभी देशों में स्वीकृत हो गई है। किसी देश में सर्वाधिक सुलभ व किसी देश में कम सुलभ हुई है। इससे अनायास ही मानव जाति के लिए उपलब्धि यह हुई कि सभी समुदाय, परिवार, व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र एक जगह में जुटने का किसी निश्चित मुद्दे पर परस्पर आदान-प्रदान चर्चा और निर्णय लेने के लिए सहायक हो गई। अभी तक परम्पराओं में जन मानसिकता और जनचर्चा स्पष्ट हो चुकी है उसी के अनुरूप विविध समुदाय बारम्बार एक दूसरे के साथ परामर्श विधि अपनाना सुलभ हुआ इसी के साथ घरेलू उपकरणों को और आवास, अलंकार संबंधी वस्तुओं को निर्मित करने में यंत्रोपकरण की सहायता उपादेयी मानी गई है। इस दशक के मध्यभाग तक मानव ने यह भी आँकलित किया है कि हर उत्पादन ठीक समझा हुआ आदमी के हाथों से जितना सस्ता हो सकता है उतना यंत्रोपकरण से नहीं हो सकता है। इस ध्वनि से यह भी एक स्वाभाविक अनुमान होता है सभी मानव के लिए कार्यकारी योजनाएं विधिवत समझ में आयी नहीं रहती है। कुछ लोग यांत्रिकी तकनीकी के आधार पर यंत्रों की सहायता से उत्पादन को बढ़ावा देने का कार्य किये है। इसका तात्पर्य यह हुआ इस दशक तक मानव में से अधिकांश लोग कार्यकारी मानसिकता से रिक्त रहते है और संचालनकारी मानसिकता से संबद्ध रहते है या संबद्ध होने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। यही आज की देश धरती की जनमानसिकता का स्वरूप है। यह भी एक कारण रहा है आहार, आवास, अलंकार संबंधी उत्पादनों से एवं उसके प्रतिफलन मूल्यांकन विनिमय में और महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुओं उपकरणों के उत्पादनों

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