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के संतुलन स्थापित होना अभी तक नहीं हो पाया है। आज की स्थिति में कृषि उत्पादन का मूल्यांकन उपेक्षणीय दिखाई पड़ता है। उससे अधिक आकर्षक मांसाहारी पशु-पक्षी पालन में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। उससे अधिक दिलचस्पी आवास संबंधी और वस्त्र संबंधी उत्पादनों में होना पाया जाता है। इससे अधिक दिलचस्पी महत्वाकाँक्षी संबंधी वस्तुओं के उत्पादन में दिखाई पड़ती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जनमानसिकता की प्रवृत्ति कृषि उपज कार्यों में कम होती गयी। अन्य कार्यों में अधिक होती गयी। यही संपूर्ण देश धरती की हालत है। व्यापार तंत्र लाभोन्मादी अर्थ तंत्र ऐसी स्थिति को निर्मित करने का उत्तरदायी होना समझ में आया। अतएव इसमें संतुलनकारी जनचर्चा की आवश्यकता है ही। सम्पूर्ण अर्थतंत्र अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पर निर्भर है। इसमें सभी राष्ट्र संस्थाएँ सहमत है। इसके बावजूद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा (बहुमूल्य धातुएँ) उपयोगिताशील वस्तुओं का प्रतीक मुद्रा ही है। प्रतीक प्राप्ति नहीं होती दूसरे विधा से प्राप्तियाँ प्रतीक नहीं होती इस सूत्र से स्पष्ट हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष बहुमूल्य धातुओं के रूप में पहचाना गया है। यह केवल धन को धन से पाने की विधि से सम्मत होकर सामान्य मानव हर उपभोक्ता ऐसी प्रतीक मुद्रा प्रणाली से प्रताड़ित होने के लिये बाध्य हो चुका है। इसके निराकरण सहज जनचर्चा और जनमानसिकता की आवश्यकता है। सुदूर विगत से ही हम संघर्ष के लिये ही जनमानस को तैयार करने के क्रम में संघर्षात्मक जनवाद को अपनाते आये हैं। संघर्ष एक सर्वस्वीकृत वस्तु न होकर मजबूरी का ही प्रदर्शन है। जैसे युद्ध किसी के लिये वांछित घटना नहीं है फिर भी युद्ध की तैयारियाँ हर देश करता है। यह देश-देश के बीच मजबूरी की स्थिति है। हर व्यक्ति एक दूसरे के साथ व्यवहारिक संगीत को स्थापित करना चाहता है। शिक्षा-संस्कार (प्रचलित) कार्यक्रम में इसके लिए कोई निश्चित प्रावधान न होने के कारण हर व्यक्ति एक दूसरे से सशंकित मानसिकता को लिये हुए संघर्ष को अपनाने के लिए विवश होता जा रहा है। इसका जीता जागता साक्ष्य यही देखा जा रहा है पति-पत्नी दोनों अलग-अलग कोषालयों में खाता बनाए रखना चाहते है। इतना ही नहीं है घर में रखी हुई पति-पत्नी की पेटियों में अलग-अलग ताला होना भी पाया जाता है। हर परिवार में घर के दरवाजे पर ताला लगाया ही जाता है। ताला लगाने का तात्पर्य मानव जाति के प्रति शंका-कुशंका ही है। हर व्यक्ति इस बात को स्वीकार कर चलता ही है कि चोर डाकू होते ही है। इसलिए ऐसा प्रबंध करके रखना ही है। कोषालयों को देखे वहाँ भी अभेद्य कक्ष बनाए जाते हैं - इसके बावजूद भी यह सब लूटे जाते हैं। ऐसी घटनाओं को बारम्बार सुना जाता है। इन सभी घटनाओं को याद दिलाने के मूल में एक ही मकसद है हम मानव को अभी व्यवस्था में जीना है। ऐसी समझदारी विकसित नहीं हुई और

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