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प्रबंध के रचयिता और पंडितों को पुरस्कृत एवं प्रोत्साहित किया गया। यह भी हमारी देखी हुई घटनाएँ हैं। इस विधि से साम्यवादी विचार का अन्त सामान्य जनमानस के अनुसार भोगवाद में परिणत हो गया, और जहाँ तक शासन प्रशासन के तौर तरीके का मुद्दा है, अभी तक पूंजीवादी देश जितना भ्रमित रहा है उतना ही साम्यवादी देश भी उलझा रहा है, भ्रमित रहा है। अभी की स्थिति में पूंजीवादी देशों में सामरिक तंत्र और मात्रा दोनों बढ़ा हुआ देखने को मिलता है। इसी के साथ-साथ साम्यवादी देश कहलाने वाले इस दशक के अन्त तक जो भी बचे हुए हैं, वे भी अपने सामरिक तंत्र और मात्रा में पर्याप्त समर्थ हैं; ऐसा बता रहे हैं।

जो साम्यवादी देश नहीं हैं, धर्म निरपेक्ष तंत्रवादी और लोककल्याण तंत्रवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी भेदों में गण्य हैं। उल्लेखनीय तथ्य यही है इन किसी भी वाद परस्त संविधानों में सार्वभौम आचार संहिता का सूत्र और व्याख्या देखने को नहीं मिली। इसके अनंतर कई राष्ट्रों के गठन से गठित संस्थायें भी बनी हैं। उन में से एक गुट निरपेक्ष है, एक कामनवेल्थ तथा एक राष्ट्र संघ है। इसी के साथ और भी कई नामों से कुछ कुछ देश मिलकर संगठनों को बनाए रखे हैं। इन सभी संगठनों में परस्पर मानवीयता पूर्ण व्यवस्था सहज आचार संहिता का सूत्र और व्याख्या नहीं हो पायी।

संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुशंसा के अनुसार शिक्षा में सार्वभौमता को पाने की विधा में कई उप-संस्थाओं को शामिल किये हैं। ऐसी चार-छ: संस्थाएँ विभिन्न देशों में काम कर रही हैं। अभी तक इनसे कोई सार्वभौम मानसिकता सहज शिक्षा-प्रणाली-नीति और कार्य योजना स्थापित नहीं हो पायी। ये सभी संस्थाएँ जिनके पास अधिक पैसा है, पैसा बाँट देना ही अपना कार्यक्रम मान लिए हैं। इसी क्रम में अधिकांश देश, सामान्य लोगों के पास पैसे पहुँचने पर, सब विकसित हो जायेंगे ऐसा सोचा करते हैं कार्य भी वैसा करते है। यह भी इस दशक में देखने को मिल रहा है कि सर्वाधिक पैसा जिसके पास है वही ज्यादा से ज्यादा शेाषण करता है। जहाँ ज्यादा शोषण होता है - वहीं ज्यादा पैसा एकत्रित होता है यह देखा गया है। इतना ही नहीं व्यापार और शोषण में जो पारंगत हैं ऐसे लोग बड़े-बड़े कोषालयों की कार्यशैली में धूल झोंककर स्वयं लाभ पैदा करते हुए देखे गये हैं।

जहाँ तक गणतंत्र-प्रजातंत्र-समाजतंत्र किसी भी नाम से जनमत के आधार पर जो व्यक्ति गद्दी में बैठ जाता है उन सब का कमोवेशी कार्यकलाप का तरीका मूलत: एक सा होना बनता है अर्थात् विशेष हो जाता है। सभी राज्य शासन-प्रशासन के लिये संविधान बना ही रहता है। ऐसे सभी

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