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गया है। वाद प्रवृत्ति हर व्यक्ति में काफी लंबी चौड़ी अर्थात् विशाल होती है। योजना प्रवृत्तियाँ, वाद प्रवृत्ति से कम क्षेत्र में होना देखा गया है। और योजना प्रवृत्ति से कार्य प्रवृत्ति और छोटी होती हुई देखने को मिलती है। इस सर्वेक्षण को हर व्यक्ति सर्वेक्षित कर निश्चय कर पाता है। कार्य प्रवृत्ति के अनन्तर फल प्रवृत्ति का होना पाया जाता है। फल परिणामों का आँकलन हर समुदाय परंपराओं में प्रकारांतर से समावेशित है। विगत शताब्दी के अंतिम दशक तक उपलब्ध फल परिणामों के आधार पर मानव अपने “त्व सहित व्यवस्था” में जीने में असमर्थ रहा है। दूसरी मानवकृत कार्य परिणाम का स्वरूप नैसर्गिक-प्राकृतिक संतुलन से असंतुलन की ओर हुआ है। विगत शताब्दी के अंतिम दशक तक मानव अपनी समझदारी एवं उसकी सम्पूर्णता को परम्परा के रूप में पाने में विफल रहा है। अभी तक यह भी देखने को मिला है कि मानव अनेक परम्पराओं को स्वीकारता ही आया है। साथ ही परस्पर परम्पराओं की दूरी यथावत् बनी ही है। ये दूरियाँ सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक प्रभेदों के आधार पर देखने को मिल रही हैं। उक्त चारों मुद्दों में कहीं भी सार्वभौमता का सूत्र (जिसको सभी अपना सके ऐसा सूत्र) नहीं मिला। यह पहली विफलता की गवाही है। युद्ध सदा ही राष्ट्र-राष्ट्र की परस्परता में मंडरा रहा है। आर्थिक विषमताएँ, सांस्कृतिक असमानताएँ सदा-सदा से मानव कुल को प्रताड़ित कर ही रही है। इस बीच साम्यवादी और पूंजीवादी विचारों को चर्चा के रूप में मानव कुल में प्रवेश कराया गया है। इन दोनों की अन्तिम मानसिकता बिन्दू एक ही हुआ - वह है भोगवाद। पूंजीवाद में ज्यादा कम का प्रकाशन होना देखा गया है। इसी को मुद्दा बना कर आर्थिक रूप में समानता की परिकल्पना दी गयी जिसे साम्यवाद कहा गया। अधिकतर जनमानस में साम्यवाद स्वागतीय होते हुए जिन देशों में साम्यवादी प्रथा शासन-प्रशासन के रूप में ढाली गई वहाँ के सभी लोग अथवा सर्वाधिक लोगों ने भोगवाद व पूंजीवाद को ही पसंद किया। इसे भली प्रकार से देखा गया है कि पूंजीवाद के समान ही लाभोन्माद से साम्यवाद भी पीछा नहीं छुटा पाया। पूंजी के आधार पर जो परिकल्पनाओं को एकत्रित किये वह एक प्रबंध के रूप में मानव के हाथों अर्पित करने के उपरान्त भी उन ही प्रबंधों में इस सिद्धान्त के नाम से प्रबंध का विरोधी प्रबंध, विरोधी प्रबंधों का समन्वय प्रबंध एवं पुन: प्रबंध का जिक्र किया। इससे प्रबंध विहीन मानसिकता जनमानस के हाथ लगी। इसी आधार पर विचार और कार्यक्रम की निश्चयता, स्थिरता लाखों पूंजीवादी आदमियों को कत्ल करने के उपरान्त भी हाथ नहीं लगी। इसी के साथ भौतिकवादी विचार के साथ यह भी एक भ्रम पीछे पड़ा ही रहा कि “विकास अन्तविहीन होता” है। इन दोनों कारणों से भौतिकवादी प्रबंधों के आधार पर व्यवस्था का निश्चयन होना संभव नहीं हो पाया। जबकि भौतिकवादी

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