संविधानों में तीन मुद्दे प्रधान है। गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना और युद्ध को युद्ध से रोकना। यह प्राय: सभी राजशासन की गति-प्रवृत्ति और दिशा है। पर्याप्त जन सुविधा, व्यक्ति विकास, समानता का अधिकांश लोग आश्वासन देते हुए जनमत प्राप्त करते हैं, गद्दी पर बैठ जाते हैं। जबकि संविधान के अनुसार ऊपर कही हुई बुलंद प्रवृत्तियाँ, अनुशासनों की आवाज को दबा देती हैं। उसी के साथ-साथ वोट और नोट का गठबंधन, जनमत अर्जन समय से ही पीछे पड़ा रहता है। सर्वोच्च सत्ताधारी ही सत्ता का आबंटन करने में सक्षम होना संविधान मान्य रहता ही है। आबंटन के उपरान्त कुछ लोगों के लिये जिनको आबंटन में सत्ता हाथ लग गई है, उनमें और उनसे सम्मत व्यक्ति में क्षणिक संतुष्टि देखने को मिलती है।
जिनको सत्ता में भागीदारी की अपेक्षा रहते हुए सत्ता में भागीदारी नहीं मिली वे एवं उनके समर्थक असंतुष्ट दिखते हैं। इस प्रकार संपूर्ण देशों की गणतंत्र प्रणालियाँ वोट-नोट, बँटवारा, संतुष्टि-असंतुष्टि के चक्कर में फँसे हुए दिखाई पड़ते हैं। इस मुद्दे पर जनचर्चा यही स्वीकारने के जगह में आयी, सबको स्वीकार्य घटना हो ही नहीं सकती। यदि होती है तो वह ईश्वराधीन है। संवाद करने पर सभी व्यक्ति संतुष्ट हो नहीं सकते ऐसा निष्कर्ष रहा। संतुष्टि सबको चाहिये कि नहीं चाहिये, पूछने पर सबको संतुष्टि चाहिये यही उद्गार निकलता है। ऐसा भी परीक्षण इसी तथ्य का समर्थनकारी है कि मानव अपनी मानसिकता के मूल में सर्वशुभ को स्वीकारा ही है।
धर्म निरपेक्षता को कुछ संविधान में स्वीकारे हुए हैं, किन्तु संविधान में धर्म निरपेक्षता का आचरण (मूल्य, चरित्र, नैतिकता) का सूत्र व्याख्या अध्ययनगम्य व लोकगम्य नहीं हुआ है। जहाँ तक जनकल्याणकारी नीति को जो देश अपनाया है वह अपने में ज्यादा से ज्यादा पैसा और सुविधा सबको मिलने की मानसिकता है और प्रतिज्ञा है। किसी भी विधि से प्राप्त संग्रह-सुविधा का तृप्ति बिन्दु न होने के कारण निरंतर ही अग्रिम सुविधा-संग्रह की प्यास जनमानस में क्रमश: बढ़ती हुआ देखने को मिल रही है। इस विधि से जनकल्याणकारी विचारों को लेकर सामरिक तंत्र से लैस गतिविधि अन्य देश जो सामरिक तंत्रणा से उतना लैस नहीं है, ऐसे देशों को अपना स्रोत बनाने में अर्थात् अपने देशवासियों के आवश्यकताओं को पूरा करने के स्त्रोत के रूप में अपने को तैनात करने में व्यस्त हैं। इसी के साथ उन ही देशों के हाथों में अर्थतंत्र का भी नियंत्रण बन चुकी है। विज्ञानवादी अर्थतंत्र के अनुसार अथवा लाभोन्मादी अर्थतंत्र के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जिन-जिन देशों में अधिक हो गया है वे सब शोषण के योग्य हो चुके है।