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मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद हर नर-नारी में जीवन शक्ति और बल को समान रूप में पहचानने की विधि और अध्ययन प्रस्तुत किया है। जीवन शक्ति और बल को अक्षय रूप में पहचानना अध्ययन विधि से सहज हो चुका है। साथ ही जीवन का अमरत्व प्रमाणित होना समझ में आता है। भौतिक रासायनिक क्रियाकलाप में भागीदारी करता परमाणु यथास्थितियों में, के साथ और त्व सहित व्यवस्था के रूप में होना स्पष्ट हो चुका है। जड़ परमाणु अपने में एक से अधिक अंश परस्परता में पहचानने के आधार पर स्वयंस्फूर्त व्यवस्था है क्योंकि हर परमाणु का आचरण निश्चित रहता है। इसी प्रकार परमाणु रचित अणुओं का आचरण भी निश्चित रहता है। विभिन्न प्रजाति के अणुओं के योग से रासायनिक वैभव स्पष्ट हो चुकी है। रासायनिक वैभव का नियति प्राणसूत्र - प्राणकोषा और प्राणकोषा से रचित रचनाएँ जैसे प्राणावस्था (वनस्पति संसार) जीवावस्था तथा मानव शरीर ही है। मानव ही सभी प्रकार की शरीर रचनाओं का अध्ययन करने में निष्णात होना चाहता है। यह मानव की सहज प्रवृत्ति है। मानव शोध, अनुसंधान, प्रयोग पूर्वक परम्परा में प्रमाणों को समाहित करने का इच्छुक होना पाया गया है। इस क्रम में अभी तक किये गये वैज्ञानिक तथ्यों में सार उपलब्धि जो मानव के हाथ लगी है वह दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूरगमन है। इन सबका सकारात्मक भाग समाज गति के लिए उपयोग करना मानव परम्परा की गरिमा है। मानव इन अद्भूत उपलब्धियों को नकारात्मक पक्ष में जो उपयोग प्रयोग किया है वह सामरिक तंत्र ही है। सामरिकता के जितने भी यंत्र-उपकरण बने सब मानव की बर्बादी का द्योतक है। यही आजादी का रास्ता अभी तक हुआ नहीं है। परिपूर्ण होने के लिए सहअस्तित्व ज्ञान, विज्ञान, विवेक परम आवश्यक है। इन सबका विधिवत अध्ययन करने के लिए मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद प्रस्तुत हुआ है। इस नजरिया से परस्परता में संवाद सुलभ होने के लिए यह व्यवहारात्मक जनवाद प्रस्तुत हुआ है।

संवाद मानव परम्परा में एक सहज कार्य है। इसमें कहीं न कहीं सर्वशुभ की कामना समायी रहती है। सर्वशुभ घटनाएँ घटित होने के उपरांत मानव परम्परा स्वयं शुभ परम्परा के रूप में प्रमाणित होने की सम्भावना बनी ही है। मानव में चाहत भी बनी है। चाहत और सम्भावना का संयोग-योग बिन्दु में ही शुभ परम्परा का उद्गम है। इसका प्रमाण रूप चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार में मानव की पहचान, मानव की पहचान का मतलब मानवीय शिक्षा, मानवीय व्यवस्था, मानवीय संविधान और मानवीयता पूर्ण आचरण को बोधगम्य कराना ही है। इस क्रम में मूल सूत्र “त्व सहित व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी” ही है। मानवत्व अपने में जागृति के रूप में सुस्पष्ट है। जागृति अपने में समझदारी का स्वरूप होना स्पष्ट हो चुकी है। समझदारी अपने

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