दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन के रूप में यंत्र उपकरण सर्वसुलभ हुए। इन सबको मानव ने उपयोग करना शुरू किया। इसके अतिरिक्त कृषि संबंधी उत्पादन में एवं आवासीय संरचनाओं में उपयोगी वस्तुओं को भी तैयार कर लिए। इसी क्रम में अलंकार संबंधी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगी। विज्ञान अपने वर्चस्व को उक्त सभी विधाओं में स्थापित कर लिया। मानव इन सब वस्तुओं को सुखी होने के लिए पाना चाहता है। किन्तु एक व्यक्ति जितना संग्रह कर लेता है उतना सब के पास नहीं होता है। यह भी जनचर्चा का एक मुद्दा है। ये सारी सुविधाएँ सबको कैसे मिल सकती है ? क्या करना होगा? इसको निर्धारित करना भी एक मुद्दा है। उपलब्ध सभी वस्तुओं से मानव सामान्याकांक्षा, महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं के प्रति आश्वस्त हुआ। अन्ततोगत्वा सभी वस्तुओं का प्रयोजन शरीर पोषण, संरक्षण, समाजगति के रूप में होना ही निश्चित है। इन तीनों विधाओं में उपयोग करने के उपरान्त वस्तुओं का शेष रहना ही समृद्धि है। तभी मानव उपकार कार्य करने में प्रवृत होता देखने को मिलता है। उपकार कार्य हर मानव संतान को समर्थ बनाने के अर्थ में सार्थक होता हुआ देखा गया है।
मानव कुल शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति में तृप्त होने का इच्छुक रहा ही है। यही इच्छा पूर्ति नहीं हो पाई क्योंकि संग्रह और सुविधा के अर्थ में सारे वस्तुओं को मूल्यांकित करने की आदत मानव में समावेशित हो चुकी है। संग्रह, सुविधा का तृप्ति बिन्दु को पहचानने के पक्ष में परामर्श करने पर पता चलता है कि इन दोनों का तृप्ति बिन्दु मिलता नहीं।
मानव परम्परा के इतिहास के अनुसार सामान्य और महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं की उपलब्धि जैसे-जैसे हुई उससे तृप्त होने की इच्छा मानव में होती रही। उसके बाद किसी वस्तु की कमी महसूस होती थी तो उसके मिलने से तृप्त हो जायेंगे सुखी हो जायेंगे ऐसा सोचते थे। संयोगवश आज सभी वस्तुएँ उपलब्ध हो गई, कई लोग प्राप्त भी कर लिये, इसके बावजूद सुखी होने का लक्षण कहीं उदय हुआ नहीं। इस आधार पर मानव का लक्ष्य क्या हो सकता है? इस मुद्दे पर परामर्श पूर्वक सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि मानव सुविधा संग्रह, भोग, अतिभोग की ओर प्रवृत्त होता देखा गया। यह भी तृप्ति विहीन प्रयोग साबित हुआ। इस क्रम में पुन: विचार की आवश्यकता हुई।
सहअस्तित्ववादी मानसिकता के आधार पर वस्तुओं का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता को हम परखते हैं। मानसिकता में बदलाव हुआ और सहअस्तित्ववादी विधि से जीना उद्देश्य हुआ। ऐसे उद्देश्य से स्पष्ट हुआ तभी उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता समझ में आ