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सकारात्मक फलन प्रमाणित होते ही रहता है। सकारात्मक फलन का तात्पर्य न्याय और समाधान पूर्वक जीने से और शाश्वत सत्य को प्रमाणित करने से है। यही जागृति पूर्वक जीने का प्रमाण है। यही मानव परम्परा का वैभव भी है। इसी वैभव वश मानव में अखंडता, सार्वभौमता का प्रमाण उदय होता है। जिससे परिवारगत आवश्यकताओं के संयत समृद्ध होने की सम्भावनाएँ अधिक बन जाती है।

भ्रमवश हम मानव यही कहते रहे हैं कि आवश्यकता अनंत है साधन सीमित हैं। इसलिए संघर्ष करना जरूरी है। छीना-झपटी, शोषण ही संघर्ष का रूप हुआ। ऐसे घृणित कार्य करते हुए भी श्रेष्ठता का दावा किया, बेहतरीन जिन्दगी का दावा किया। यह कहाँ तक न्याय हुआ ? इस मुद्दे पर भी जनचर्चा की आवश्यकता है। भ्रमित जन मानस में भी न्याय, धर्म, सत्य की अपेक्षा रूप में स्वीकृति बनी हुई है किन्तु उसी के साथ-साथ परम्परा में इसकी प्रामाणिकता की उपलब्धता नहीं रहने के कारण मानव अपने-अपने तरीके से जीवों से अच्छा जीने के स्वरूप को बना लेता है। जीने के क्रम में आहार, विहार, व्यवहार, उत्पादन, कार्य का निश्चयन आवश्यक है। प्रकारान्तर से मानव इसे अनुसरण किये रहता है।

आहार के बारे में पहले ही यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि मानव शाकाहार मांसाहार को पहचान चुका है एवं इनका अभ्यासी भी है। इन दोनों प्रकार के आहार विधा में विविध प्रकार से व्यंजनों को बनाने और व्यंजनों को शोध करने के कार्यक्रमों को कर ही रहा है। इसकी आवश्यकता है कि नहीं, यह भी संवाद का मुद्दा हो सकता है। संवाद आवश्यकता के आधार पर सोचने पर पता चलता है कि मानव के निश्चित आचरण को पहचानना आवश्यक है। आचरण का निश्चयन इसीलिए अपरिहार्य हो गया है कि मानव अपने में बहुमुखी अभिव्यक्ति है, दूसरी भाषा में सर्वतोमुखी अभिव्यक्ति है। व्यक्त होने के क्रम में आचरण रहता ही है। मानव और मानव के आचरण को विभाजित नहीं किया जा सकता, अविभाज्य रूप में यह वर्तमान रहता ही है। ऐसी उत्सववादी क्रियाएँ आगे चलकर एक कोशी, बहुकोशी रचना वैभव को प्रकाशित किया है और इसी क्रम में मानव शरीर रचना भी बहुमूल्यवान रचना होना मानव में, से, के लिए आंकलित हो पाता है।

शरीर रचना क्रम में निश्चित आचरण परम्पराएँ स्थापित हो चुकी हैं इनमें से मानव का आचरण भी निश्चित होना एक आवश्यकता रही आयी है। निश्चित आचरण के साथ ही मानव का व्यवस्था में जी पाना संभव है। व्यवस्था में जीना और आचरण को अलग-अलग नहीं किया

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