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जा सकता। इसके मूल में आहार-विहार, प्रवृत्ति, व्यवहार प्रवृत्तियाँ एक दूसरे से अनुबंधित रहते है। व्यवस्था में जीने के लिए और व्यवस्था को प्रमाणित करने के लिए आचरण एक महत्वपूर्ण आयाम है। आचरण के मूल में विचार, विचार के मूल में विज्ञान और विवेक, विज्ञान और विवेक के मूल में ज्ञान, ज्ञान के मूल में सहअस्तित्व अनुबंधित रहना पाया जाता है। इस प्रकार मानव को व्यवस्था में जीने की आवश्यकता बनी ही रहती है। व्यवस्था में जीना ही समाधान का प्रमाण है। मानव के संदर्भ में व्यवस्था में जीकर समाधान को प्रमाणित करने की आवश्यकता है ही। यह मानवीयतापूर्ण आचरण पूर्वक ही प्रमाणित होता है।

मानवीयता पूर्ण आचरण अपने में त्रिआयामी अभिव्यक्ति है मूल्य, चरित्र और नैतिकता। अभिव्यक्ति का तात्पर्य अभ्युदय के अर्थ में होने से है अभ्युदय अपने में सर्वतोमुखी समाधान ही है। सर्वतोमुखी समाधान का धारक वाहक होने के आधार पर मानव को ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचाना गया है। समझ अपने में बहुआयामी स्वीकृति होने के आधार पर हर आयाम में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी और पूरकता यह निश्चयन होना ही स्वीकृति का मतलब है। इन स्वीकृतियों के आधार पर मानव में अपने लक्ष्य को पहचानने का सूत्र तैयार हो जाता है अथवा सूत्र स्वयंस्फूर्त होता है। व्यवस्था में जीने के लिए हर व्यक्ति में समाधान अर्थात् उन-उन विधा में प्रमाणित होना आवश्यक है। मानव से जुड़ी हुई विधाएँ प्रधानत: पाँच स्वरूप में पहचानी गई है जिसमें मानव सहअस्तित्व विधि से समाधान को प्रस्तुत करना अथवा समाधान पूर्वक निर्वाह करना ही है।

शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है।

जीवन और शरीर अलग-अलग महिमा सम्पन्न इकाई होते हुए इनकी अभिव्यक्ति में निरन्तर एक परम्परा का स्वरूप बना ही है। इसी का नाम मानव परम्परा है। मानव परम्परा में शरीर की काल अवधि होती है, और शरीर आयु मर्यादा के आधार पर कार्य मर्यादा को प्रकाशित करता है। हर पीढ़ी आगे पीढ़ी और आगे पीढ़ी पीछे पीढ़ी से ऐसी अपेक्षाएँ बनाए रखती है, आयु के आधार पर ही यह अपेक्षा बनी रहती है। इसकी औचित्यता पर विचार करने से पता लगता है मानव अपने में आयु की महिमा, प्रवृत्ति को स्वीकारे हुआ रहता है।

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