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वस्तु और आकार प्रकार पर निर्भर होना पाया जाता है। संवेदना से कामोन्माद, भोगोन्माद ही सर्वाधिक प्रभावशाली रहा। भोगोन्माद के क्रम में कामोन्माद सर्वाधिक प्रभावशील होना देखा गया। इस 2000 के शतक में पहले दशक तक मानव भोगोन्माद में चूर होना पाया गया। अपने जीवन सहज कामनाओं के आधार पर शुभ वार्ताओं में भागीदारी भी करता रहा। इस विधि से संभ्रान्त कहलाने वाले अपनी सज्जनता के लिए अपने को प्रस्तुत करते हुए उपकार विधि को पहचानने की कोशिश हुई।

पराक्रम को पहचानने के लिए गये तो इसका परिचय भोगशक्ति और युद्धशक्ति के रूप में हुआ। युद्ध शक्ति बर्बादी के लिए होना सर्वविदित है। भोगशक्ति व्यक्तिवादी होना पाया जाता है। भोगशक्ति के प्रयोग में ही सौंदर्य बोध की आवश्यकता बनी रहती है। इस विधि से सभी मानव अथवा सर्वाधिक मानव संवेदनशीलता की इस पराकाष्ठा तक पहुँचने के इच्छुक है। इसी लक्ष्य में विज्ञान शिक्षा संसार को स्वीकार हुआ है। क्योंकि प्रौद्योगिकी को विज्ञान का उपज माना जाता है। प्रौद्योगिकी विधि से कम श्रम से ज्यादा उत्पादन होने की स्वीकृतियाँ बनी है। इसी कारण विज्ञान शिक्षा का लोकव्यापीकरण सुगम हुआ। विज्ञान विधा में और तकनीकी कर्माभ्यास में जिस ज्ञान के आधार पर मानव को जीना है वह ज्ञान मानव को पहचानने में पर्याप्त नहीं हो पाया। इसी प्रकार आदर्शवादी ज्ञान में मानव को पहचानना संभव नहीं हो पाया। आदर्शवादी विधि में दया के आधार पर कुछ उपदेश सद्-वाक्य प्रस्तुत हुए है। लेकिन इसकी मूलशिक्षा भक्ति विरक्ति के अर्थ में प्रतिपादित हो चुकी है। उल्लेखनीय तथ्य यही है कि भक्ति- विरक्ति भी व्यक्तिवादी है। व्यक्तिवाद किसी शुभ स्थली पर पहुँचने में समर्थ नहीं हुआ सर्वशुभ तो बहुत दूर है। इसलिए मानवीय शिक्षा को पहचानना एक आवश्यकता बन चुकी है।

मानवीय शिक्षा का प्रारूप :

मानवीय शिक्षा प्रारूप के अनुसार मानव को मानवीयता के संयुक्त रूप में पहचानने की आवश्यकता है। जनाकांक्षा मानवीय शिक्षा का स्वागत करता है। जनचर्चा में इसे हृदयंगम करने और इसकी परिपूर्णता को साक्षात्कार करने की आवश्यकता है। परिपूर्णता का तात्पर्य समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी सहित परिवार और विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करने के अर्थ में है।

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