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दायित्व कर्तव्यों का निर्वाह होना अपने आप में विश्वास का आधार बनता है यही व्यवहार सूत्र कहलाता है। जहाँ भी कर्तव्य दायित्वों का निर्वाह नहीं कर पाते वहाँ विश्वास नहीं हो पाता है। भ्रमित मानव परम्परा में दायित्व कर्तव्य का बोध नहीं हो पाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है व्यवहार तंत्र का आधार संबंध ही है। इसका निर्वाह और निरंतरता ही परिवार और समाज की व्याख्या बन जाती है। इन दोनों प्रकार की व्याख्या से पारंगत होने के फलन में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना स्वाभाविक है। व्यवस्था में सार्वभौमता स्वाभाविक है। व्यवस्था को हर व्यक्ति वरता ही है। अखण्ड समाज व्यवस्था ही व्यवस्था हो पाती है।

व्यवहार व्यवस्था का तात्पर्य अथवा समाज व्यवस्था का तात्पर्य मानव में, से, के लिए लक्ष्य समेत जीने की विधि, विधान, कार्य और व्यवहार ही है। व्यवहार विधि संबंधों के आधार पर मूल्यों के निर्वाह करने के दायित्व पर निर्भर किया जाता है। इसके लिए जो क्रमबद्धता अर्थात् निर्वाह के लिए जो क्रमबद्धता होती है यही विधान है। इन विधि विधान के आधार पर सर्वपथ्रम स्वस्थ मानसिकता की पहचान, निर्वाह, मूल्यांकन विश्वास का मूल आधार होता है। स्वस्थ मानसिकता जागृत मानसिकता होती है। जागृत मानसिकता अनुभवमूलक मानसिकता है। जागृतिपूर्ण मानसिकता अपने में मानवीयता, देव मानवीयता, दिव्य मानवीयता को प्रमाणित करने के क्रम में उद्धत रहती ही है। मानवीयता, देव मानवीयता में परिवार और समाज व्यवस्था मानवीयतापूर्ण आचरण सहित प्रमाणित होना बनता है। इसी क्रम में दिव्य मानवीयता समग्र व्यवस्था में भागीदारी पूर्वक स्वतंत्रता, स्वराज्य को प्रमाणित करने में सार्थक हो जाती है। स्वतंत्रता, स्वराज्य सहअस्तित्व विधि से वैभवित होते है। स्वराज्य व्यवस्था में स्वाभाविक विधि से मानवीय शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, स्वास्थ्य-संयम कार्य और व्यवस्था अपने आप में निर्वाह होते है। ऐसे स्वराज्य व्यवस्था परिवार मूलक विधि से विश्व परिवार व्यवस्था तक दश सोपानीय विधि से सार्थक हो जाते है। हर स्थितियों में सामान्य रूप में 10-10 समझदार व्यक्तियों की एक सभा सम्पन्न होती है। एक परिवार में 10 समझदार व्यक्ति होते हैं। ऐसे 10 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति परिवार व्यवस्था के अतिरिक्त और सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी के लिए निर्वाचित रूप में प्रस्तुत होना बनता है। ऐसे व्यक्ति को हर परिवार में पहचान लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया रहता ही है।

जागृत मानव परिवार में परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने के आधार पर उपकार कार्य में प्रवृत्त होना स्वाभाविक है। समाधान समद्धि के साथ परिवार में उपकार प्रवृत्ति, ऐसे

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