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शिक्षा की पहचान हर मानव के लिए आवश्यक है। हर देश काल में आवश्यक है। हर स्थिति परिस्थिति में आवश्यक है। इस आधार पर शिक्षा प्रारूप को जाँचने की आवश्यकता है। जाँचने के उपरान्त स्वीकारने में सटीकता बन पाती है। इसे हर व्यक्ति परीक्षण, निरीक्षण कर सकता है। हर मानव में संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का प्रमाण प्रस्तुत होना आवश्यकता है क्योंकि संज्ञानशीलता पूर्वक ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हो पाती है। ऐसी स्थिति में मानव का आचरण निश्चित नियंत्रित हो पाता है। निश्चित होने के आधार पर सम्पूर्ण आचरण समाधान सम्पन्न रहना पाया जाता है। समाधान पूर्ण विधि से आचरण करने के क्रम में संवेदनाएँ नियंत्रित रहना देखा गया है। संवेदनाएँ नियंत्रित होना परस्परता में विश्वास का महत्वपूर्ण आधार है।

सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्य व्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओं के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात् कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है।

मानव में परस्परताएँ में भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, पति-पत्नी, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि से संबोधन किये जाते है। ये परिवार संबोधन कहलाते है। इन संबोधन के साथ प्रयोजनों को (संबंध का अर्थ रूपी प्रयोजनों को) पहचानते हुए निर्वाह करने के क्रम में हम जागृत मानव कहलाते हैं। भ्रमित मानव भी संबोधन को प्रयोग करता ही है। सम्पूर्ण प्रयोजन संबंधों की पहचान और निर्वाह जैसे गुरू के साथ श्रद्धा एवं विश्वास, माता-पिता के साथ श्रद्धा एवं विश्वास, भाई-बहन के साथ स्नेह एवं विश्वास, मित्र के साथ स्नेह एवं विश्वास, पुत्र-पुत्री के साथ वात्सल्य, ममता, विश्वास, इसकी निरन्तरता में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करते हैं। इन सभी संबंधों का निर्वाह करने के साथ दायित्व और कर्तव्य अपने आप स्वीकृत होते हैं।

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