- उत्पादन कार्य में स्वतंत्रता
- विनिमय कार्य में स्वतंत्रता
- स्वास्थ्य-संयम कार्य में स्वतंत्रता
स्वयंस्फूर्त विधि से सम्पन्न होती है। इनमें हमें पारंगत होना है प्रमाणित होना है यही स्वतंत्रता का वैभव है। स्वतंत्रता के साथ स्वराज्य, स्वराज्य के साथ स्वतंत्रता अविभाज्य है। परिवार संबंध, मानव संबंध, प्राकृतिक संबंधों में न्याय और संतुलन प्रमाणित करने में स्वतंत्रता बनी ही रहती है।
समाधानित मानव में, से, के लिए कृत, कारित, अनुमोदित विधि से किया गया सम्पूर्ण क्रियाकलाप स्वतंत्रता है। उसके परिणामों की पहचान ही स्वराज्य है। स्वयं का वैभव अर्थात् मानव कुल का वैभव स्वयं में स्वराज्य है। मानव कुल समझदारी के आधार पर ही संयुक्त वैभव को प्रमाणित कर पाता है न कि युद्ध, शोषण, द्रोह, विद्रोह से। संग्रह सुविधा के सर्वाधिकता के जगह में भी हजारों लाखों लोग इस धरती पर हो चुके हैं। इसके बावजूद पद, पैसा, प्रतिष्ठा सम्पन्न होते हुए उनके स्वयं में तृप्ति का न होना पाया जा रहा है। इस स्थिति में पद, पैसा, प्रतिष्ठा के आधार पर राज्य गद्दी क्या सफल हो पायेगी? क्या स्वराज्य मिलेगा? क्या मानव स्वतंत्र हो पायेगा? ऐसा हम सोचने विचारने जाते है तब इससे नहीं होगा, यही आवाज निकलती है। इसी मुद्दे पर विचार की आवश्यकता इस व्यवहारात्मक जनवाद के माध्यम से प्रस्तुत करने में प्रयत्नशील हैं।
एक ज्वलंत प्रश्न है किताब प्रमाण होगा, यंत्र प्रमाण होगा या मानव प्रमाण होगा? यदि मानव ही प्रमाण होगा तब हम आगे समझ-बूझ तैयार करेंगे यह मानव स्वीकृति के आधार पर निर्भर है। यंत्र और किताब के प्रमाण के आधार पर मानव कुल अभी तक स्वराज्य और स्वतंत्रता का इन्तजार करता ही आया है। अपनी अपनी संस्कृति, सभ्यता, धर्म, पूजा पाठ में स्वतंत्रता संविधानों में उल्लेखित है। इस प्रकार की स्वतंत्रता में न तो सार्वभौमता हुई, न सार्वभौमता का रास्ता मिल पाया। यंत्रों के आधार पर जो स्वतंत्रता है वह स्वतंत्रता के लिए मूल वस्तु धन होना पाया गया इसलिए मानव धन संग्रह में ज्यादा से ज्यादा अपनी मानसिकता और श्रम को नियोजित किया। हर समुदायों की अपनी-अपनी पूजा स्थली होती है जो निर्माण शिल्प विधाओं से बनी रहती है। इसमें पूजा करने वाले या ऐसे स्मारकों में पूजा प्रार्थना करने वाले सब समुदाय अपने