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हर मानव अपने वैभव को पहचान कराना चाहता ही है। इस क्रम में स्वयं वैभवशाली होना आवश्यक है। विपन्नता से सम्पन्नता की ओर मानव प्रवृत्ति की आवश्यकता है। सम्पन्नता को भ्रमवश सुविधा संग्रह मान चुके हैं जबकि जीवन जागृति सर्वोपरि सम्पन्नता है। जागृति के उपरान्त ही हर मानव क्लेश, दु:ख, विपन्नता, भ्रम से मुक्त हो सकता है इसे हम भले प्रकार से जीकर देखे हैं। हर व्यक्ति सम्पन्नता पूर्वक जीना चाहता है इसका मूल वैभव केवल समझदारी ही है। समझदारी का अर्थ पहले से इंगित हो चुकी है। इस मुद्दे पर जनचर्चा और स्वीकृति और जिज्ञासा की आवश्यकता है।

हर मानव में जागृतिपूर्वक अभिव्यक्त होना एक अभिलाषा के रूप में विद्यमान है ही। जागृत होने की स्वीकृति हर मानव में है ही। जागृति के उपरान्त सर्वतोमुखी समाधान होना स्वभाविक है। हर नर-नारी में अविभाज्य रूप में विद्यमान रूप, बल, धन, पद और बुद्धि का होना पाया जाता है। बुद्धि अपने में अनुभवमूलक होने के आधार पर जागृति का प्रमाण होना संभव हो जाता है ऐसी स्थिति में मानव का सुखी होना स्वभाविक है। इसे इस प्रकार से देखा गया है मानव स्वधन, स्वनारी-स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार के रूप में आचरण करने के फलस्वरूप सुखी होता हुआ स्पष्ट होता है। बल के साथ सुखी होने की विधि को दयापूर्वक व्यवहार करने की स्थिति में स्पष्ट होता है। धन को उदारता पूर्वक सदुपयोग करने की स्थिति में धन से मिलने वाला सुख उपलब्ध होता है, पद का सुख न्याय पूर्वक जीने से अर्थात् संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के रूप में प्रमाणित होता है। बौद्धिक सुख, सत्यबोध का सुख विवेक और विज्ञान पूर्वक लक्ष्य और दिशा को निर्धारित करने के रूप में सुखी होता है। इसे भले प्रकार से निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक जीकर देखा है। इस पर जनचर्चा, परामर्श करना स्वीकार करना एक आवश्यकता है।

हर जागृत मानव स्वयं के वैभव को सम्पन्नता के रूप में प्रस्तुत करते हुए समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में राष्ट्रीय चरित्र को प्रमाणित करता है। इस क्रम में राष्ट्रीय चरित्र का एक प्रारूप अध्ययन के लिए प्रस्तुत है इस पर जनचर्चा अवश्यंभावी है।

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