राष्ट्रीय चरित्र का प्रारूप :
राष्ट्रीयता अपने में मानवीयता पूर्ण मानव का वैभव ही है। मानवीयता पूर्ण मानव के मानवाकाँक्षा जीवनाकाँक्षा सहज सार्थकता को प्रमाणित करने का मानसिकता सहित समझदारी पूर्वक जीने के रूप में राष्ट्रीयता प्रमाणित होती है। प्रमाणित होने के क्रम में ही स्वतंत्रता और स्वराज्य स्पष्ट हो जाता है। स्वराज्य का तात्पर्य “स्व का वैभव” अर्थात् हर मानव अपने वैभव की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन सहित पहचान कराना-करना और उसका सदा मूल्यांकन करते रहना ही स्वयं के वैभव का अर्थ है। स्व-वैभव ही हर मानव का “स्वत्व” है। इसे “त्व” के नाम से इंगित कराया गया है। इस विधि से मानवत्व ही सर्व मानव वैभव का राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता स्वराज्य का ही प्रमाण है। यह राष्ट्रीयता के लिए आवश्यकीय ज्ञान विज्ञान सहअस्तित्ववादी विधि से करतलगत होता है। करतलगत का मतलब है मानव के स्वत्व में समा जाता है। सहअस्तित्ववादी विधि से हम मानव के समझदार होने की आवश्यकता इसलिए भी है कि मानव को मानव के रूप में पहचानना है एवं निर्वाह करना है एवं मानव और मानवेत्तर प्रकृति के साथ, वन खनिज के साथ संतुलन को बनाये रखना है। जिससे ऋतु संतुलन बनता है। इन दोनों आशयों के लिए सहअस्तित्ववादी विधि, सार्थक मानसिकता समझ, विज्ञान और ज्ञान सम्मत विवेक सम्पन्न होने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीयता के स्वरूप को प्रमाणित करने के लिए केवल मानव रूपी इकाई ही इस धरती पर पहचान में आई है। इस बीसवीं शताब्दी के समाप्त होते तक मानव परम्परा अनेक समुदाय अनेक राज्य अनेक राष्ट्र के रूप में दृष्टव्य हैं। जो समुदाय जिस देश या भूभाग में रहता है उसका अथवा उस सीमागत भूखंड को राष्ट्र-राज्य मान लेते हैं। इसी का नाम सीमा है। उसकी सुरक्षा की परिकल्पना हर समुदाय कर चुका है इसी के साथ उसी सीमा क्षेत्र में रहने वाले राष्ट्रीयता के समर्थक रहे है अर्थात् सीमा सुरक्षा के समर्थक रहे हैं। इसी के साथ उस क्षेत्र में रहने वाले सब व्यक्ति निश्चित संस्कृति सभ्यता के प्रति निष्ठा रखने वाले होगें। हर राज्य राष्ट्र के सभी ओर पड़ोसी देश, राज्य या राष्ट्र होना स्वभाविक है। अभी तक यही मान्यता है हमारे देश की अथवा राज्य राष्ट्र की सीमा के अतिरिक्त स्थली को अन्य मानना बना ही रहता है, यह ही सभी प्रकार के संकट का प्रधान कारण है। इसी कारण सदा सदा द्रोह विद्रोह शोषण होते ही आया। इन उपद्रवों से मानव तो त्रस्त रहा ही है। अब धरती त्रस्त होने की स्थिति आने से इसका समाधान आवश्यक है अथवा समाधान की अपेक्षा बलवती हुई। उक्त प्रकार से विभिन्न वर्ग, मत, सम्प्रदाय, जाति के रूप में