अनेक समुदाय होने का आधार रहा। इसका निराकरण के लिए “मानव जाति एक कर्म अनेक”, “धरती एक राज्य अनेक”, “ईश्वर एक देवता अनेक”, “मानव धर्म एक मत अनेक”, इन चार तथ्यों को हृदयंगम करने की आवश्यकता है। इन तथ्यों को ध्यान में लाने के लिए मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद प्रस्तुत हुआ। इसके पहले विचारधारा दो स्वरूपों में उपलब्ध हुई थी एक भौतिक वाद दूसरा आदर्शवाद इन दोनों विचार धाराओं ने मानव को प्रमाण का आधार नहीं माना। जबकि मानव ही प्रमाण होना आवश्यक है। आदर्शवाद ने किताब को प्रमाण माना है। किताब को पढ़कर सुनाना ही विद्वता माना गया है। भौतिकवाद ने यंत्र को प्रमाण माना।
जब से राज युग आरंभ हुआ राज्य की परिकल्पना, संस्कृति, सीमा, सभ्यता को पहचानने की आवश्यकता आ गई। इसके साथ राज्य व्यवस्था आई। शनै: शनै: संविधान की पहचान आई। इस क्रम में गुजरते हुए राज युग में भी मानव के जान माल की सुरक्षा पूरी नहीं हो पायी। तब गणतन्त्र, लोकतन्त्र की परिकल्पना आई, राजयुग में ही संविधानों की रचना हो चुकी थी।
स्वराज्य के नाम से सन् 1947 में भारत की सत्ता स्थानांतरित होकर अंग्रेजों से भारतीयों के हाथ में आई। तब से अभी तक अपने मनमानी रूप में जीने की छूट के रूप में स्वराज्य को पहचाना गया। शासन का मतलब संविधान के अनुसार संयत रहना, संविधान को मानना, संविधान के अनुसार जीना माना गया। सरकार का मतलब गद्दी परस्त जो कहे वही सही है बाकी सब गलत। ग्राम स्वराज्य इन तीनों विधि से कारगर नहीं होता है। इन तीनों प्रकार की मानसिकता से राज्य सफल होता नहीं। सन् 1947 से अभी तक देश के कोने-कोने से जिनको अच्छे आदमी माने रहते हैं अथवा जो लोगों को आश्वासन दिये रहते हैं ऐसे लोग जनप्रतिनिधियों के रूप में स्वीकृत होते हैं। केवल बातचीत करते हैं, कोई निष्कर्ष अभी तक निकला नहीं जिससे सर्व शुभ हो। गाँव के ग्राम पंचायतों में भागीदारी करते हुए लोग गाँव के शुभ को कैसे पहचानेंगे। गाँव से ही सर्वाधिक जनप्रतिनिधि निर्वाचित होकर राज्यसभा, लोकसभा, विधानसभा में जाते है तमाम सुविधा होते हुए कुछ निष्कर्ष निकाल नहीं पाये। गाँव के लोग अपने गाँव के शुभ सुख सुविधा की सुरक्षा को बनाये रखने के साथ में न्याय सुरक्षा को बनाये रखे इसके लिए दिशा एवं लक्ष्य को कैसे पहचाना जाए सोचना चाहिए। तथा इस पर संवाद की आवश्यकता है। अभी न्यायालय में न्याय की पहचान नहीं हो पायी है। अभी तक न्यायालय में फैसले का सिलसिला चल रहा है वह भी गवाहियों के आधार पर ना कि घटना के आधार पर। न्याय के पक्ष में निर्णय के साथ सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं रहा। अपराधी को न्यायिक बनाने की कोई व्यवस्था नहीं है।