प्रतिभाओं की पहचान :
स्वयं पर विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, समझदारी और व्यक्त्वि में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन यह छ: स्वरूप प्रतिभा का प्रमाण होता है। प्रतिभा मूलत: समझदारी, ज्ञान ही है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है यह ही मूल प्रतिभा है। यह प्रतिभा नियति विधि से उपलब्ध है नियति विधि का तात्पर्य नित्य निरन्तर शाश्वत रूप में विद्यमान है ही। क्योंकि सहअस्तित्व नित्य विद्यमान है। सहअस्तित्व में जीवन भी नित्य स्पष्ट है। इस प्रकार प्रतिभा नित्य वर्तमान होना स्पष्ट है। ज्ञान और दर्शन ही सम्पूर्ण प्रतिभा का स्वरूप है।
प्रतिभा का स्वरूप ज्ञान और दर्शन के प्रतिपादन का प्रयोजन प्रमाणित करने की प्रवृत्ति के रूप में भी पहचाना गया है। इन मुद्दों पर अच्छी तरह से जनचर्चा आवश्यक है। ऐसी शाश्वत प्रतिभा मानव परम्परा में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। इसका कारण परिशीलन पूर्वक यह पाया गया है मानव शरीर परम्परा में ही जागृत जीवन सहज सम्पूर्ण ज्ञान उद्घाटित होने की व्यवस्था है। शरीर रचना इस प्रकार है कि जीवन जागृति पूर्वक अथवा समझदारी पूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान को उद्घाटित कर सके। इसका प्रमाण यही है कि हर मानव कल्पनाशील और कर्म स्वतंत्र है।
सर्वशुभ समझदारी से ही है।
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