आत्मबोध के अभाव में अंर्तयामित्व का अनुभव ज्ञान होना संभव नहीं है । सत्ता में संपृक्तता का बोध ही अंर्तयामी सहज बोध है ।
आत्मा अनवरत मध्यस्थ क्रिया है । वह अधिक व कम से मुक्त है, आवेश से रहित है, शोक-मोह-भ्रम से मुक्त है । इसलिए आत्मा से प्रभावित बुद्धि, बुद्धि से प्रभावित चित्त, चित्त से प्रभावित वृत्ति, वृत्ति से प्रभावित मन ही व्यवसाय, व्यवस्था और व्यवहार का नियंत्रण करता है । अन्यथा में व्यवहार और उत्पादन, कृत्रिम वातावरण द्वारा ही नियंत्रित पाया जाता है। जो दासता है, यही दूसरे को दास बनाने का प्रयास करता है । जिसमें जो होता है उसी का वह बंटन करता है । दासत्व तीन रूपों में परिलक्षित होता है-
1- व्यवहार दासत्व
2- कर्म दासत्व
3- विचार दासत्व
दासत्व क्रम से न्याय, समाधान और अनुभूति योग्य क्षमता सम्पन्नता से समाप्त होता है।
आत्मा मध्यस्थ क्रिया प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित है । मध्यस्थता ही समाधान, समाधान ही न्याय, न्याय ही मध्यस्थता या समत्व है । अनुभूति योग्य अवसर मानव को प्राप्त है इसलिए नित्य प्रयासोदय है ।
आत्मा चैतन्य इकाई के गठन के मध्य में स्थित पायी जाती है । अतः वह मध्यस्थ क्रिया है । अन्य चारों स्तरीय अंश अंतरांतर परिवेश में आत्मा के सभी ओर भ्रमणशील है, इसलिए सम एवं विषम क्रियाएं हैं ।
इकाई सहज नियंत्रण मध्यस्थता में ही है ।
जड़-क्रिया का नियंत्रण नियम में; सामाजिकता का नियंत्रण न्याय में; आशा विचार एवं इच्छा का नियंत्रण समाधान पूर्वक; अनुभव का नियंत्रण ब्रह्मानुभूति में ही है ।