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ज्ञानावस्था की इकाईयाँ निर्भ्रान्त, भ्रांताभ्रांत तथा भ्रांत भेद से गण्य हैं।

भ्रांत इकाइयाँ चार विषयों के भोग के लिए, भ्रांताभ्रांत इकाईयाँ तीन ऐषणाओं के योग के लिए प्रयास रत तथा निर्भ्रांत इकाइयाँ ब्रह्मानुभूति में तृप्त हैं ।

चैतन्य परमाणुओं में गठन परिवर्तन नहीं है । जड़ परमाणुओं में ही गठन-गुण व रचना का परिवर्तन होना पाया जाता है ।

प्रस्थापन विस्थापन से मुक्त होने के लिए परमाणु में जितने अंशों के समाने की संभावना है उतने अंशों के गठनोपरांत चैतन्य होना और उन समस्त अंशों का अल्प, अर्ध व पूर्ण अभिव्यक्ति सहज क्रियाशीलता पूर्वक ही परिमार्जित होना पाया जाता है । मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि में परिमार्जन प्रत्यक्ष है ।

चैतन्यावस्था की इकाईयों में गठन पूर्णता संपन्न हो चुकी है जिसके कारण मानव ‘जीवन’ में बत्तीस प्रकार के आस्वादन, अठारह प्रकार के तुलन, आठ प्रकार के चित्रण, दो प्रकार की बोध क्रियाएं और आत्मा में मात्र अनुभूति सिद्ध है ।

अंर्तयामी संज्ञा से पारगामीयता और व्यापकता सहज महिमा इंगित किया गया है ।

अंर्तयामी में अनुभूति से अभिमान समाप्त होता है । अभिमान भ्रम का ही अंश है ।

अंर्तयामी का बोध मात्र से ही संसार को एक परिवार के रूप में आत्मीयता (अनन्यता) पूर्वक स्वीकारता है । यही सर्वशुभ का सूत्र है ।

आत्मीयता ही परस्पर अपराधों तथा अपव्ययों का निरोधक और नियामक है । साथ ही न्याय, धर्म, सत्य के अनुसरण के लिए प्रेरणा प्रदायिनी है ।

परस्परता में अपराध एवं अपव्यय का अभाव ही सहअस्तित्व सहज सामरस्यता है ।

जागृत मानव व्यवहार काल में सहअस्तित्व में प्रमाणित रहता है ।

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