शारीरिक व्यामोह की सीमा तक ज्ञानात्मा भी जीवात्मा के सदृश दुःख, शोकादि कार्पण्य दोष (क्लेश परिपाकात्मक प्रवृत्ति) से पीड़ित भ्रमित है, जो केवल न्याय, धर्म, सत्यानुभूति योग्य क्षमता का अभाव ही है ।
आत्मा स्वभाव से अनुभवरत, बुद्धि विशेषज्ञ, चित्त चित्रण वेत्ता, वृत्ति विचारवेत्ता एवं मन स्वभाव से रसज्ञ है । यह सब जागृति पूर्वक ही अनुभूति से सम्पन्न होते हैं ।
मानव के स्थूल रूप को इच्छानुसार संचालित करने वाला चैतन्य पुंज ही ज्ञानात्मा है एवं जीव शरीर को संचालित करने वाला पुंज ही जीवात्मा है ।
अनुभूति पर्यन्त जागृति के लिए प्रयास का अभाव नहीं है । साथ ही जड़ प्रकृति परिणाम एवं चैतन्य प्रकृति परिमार्जन प्रक्रिया से मुक्त नहीं है ।
भौतिक वस्तु में गुण, रचना में परिणाम व परिवर्तन तथा चैतन्य में आशा, विचार, इच्छा में परिमार्जन प्रत्यक्ष है ।
जड़ पक्ष में परिणाम और परिवर्तन, चैतन्य पक्ष में गुणात्मक परिवर्तन और परिमार्जन क्रिया पाया जाता है ।
वस्तु पदार्थ, गुण सापेक्ष शक्ति संरचना आकार-प्रकार के परिणाम-परिवर्तन का कारण विकास क्रम ही है । विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति नित्य वर्तमान है ।
वस्तु के गुण एवं संरचना में परिणाम व परिवर्तन का कारण ही है उनका अस्थायित्व और अपूर्णता ।
पदार्थ तत्वतः परमाणु के स्वभाव गति के रूप में प्राप्त है ।
परमाणुओं की अनेक प्रजातियाँ प्राप्त है, जिन्हें भौतिक शास्त्र ने भी सिद्ध कर दिया है ।
चैतन्य परमाणुओं में गठनात्मक जातियाँ नहीं पाई जाती है । जिसके कारण उनमें गठन सीमा में विविधता नहीं है ।