ब्रह्मानुभूति (सहअस्तित्वानुभूति) ही पूर्ण समाधान है ।
जड़-चैतन्य का आधार ब्रह्म ही है । आधार का तात्पर्य नित्य ब्रह्म में निरंतर अविभाज्य होने से है ।
इन्द्रियों द्वारा संपन्न पंच क्रियाकलाप भी चैतन्य के ही हैं । चैतन्य के अभाव में इन्द्रिय-व्यापार नहीं है ।
ज्ञानात्मा के समस्त क्रियाकलापों का उद्देश्य केवल क्लेशों से मुक्ति पाना ही है । समस्यायें ही क्लेश हैं ।
जीवात्मा के क्रियाकलाप केवल विषय भोग तक ही सीमित हैं । जीवावस्था की चैतन्य इकाई जीवात्मा है ।
संग्रह, द्वेष, अविद्या, अभिमान एवं भय ही समस्याओं के प्रधान कारण हैं । ये सब भ्रम हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं है ।
असंग्रह, स्नेह, विद्या, सरलता, सहजता, अभय ही क्लेश से मुक्ति और हर्ष के लक्षण हैं । ये ही समाधान एवं समत्व के भी लक्षण हैं । जिनके अस्तित्व की निरंतरता पायी जाती है।
तीव्र तापवश मरीचिका का, भूमि की अपारदर्शकतावश अंधकार का तथा देहात्मावादी कल्पनावश मृत्यु का भ्रम जैसा भासता है वैसा ही भ्रमवश क्लेश होता है । देहात्मावाद का तात्पर्य शरीर को जीवन मान लेने से है । यही भ्रम है ।
निर्भ्रमता योग्य क्षमता की अपूर्णता ही भ्रम है । भ्रम का निवारण मात्र अनुभव समुच्चय से ही है ।
अनुभव समुच्चय मानवीयता सहज अधिकार पूर्वक अतिमानवीयता सहज अधिकार सम्पन्नता से है ।
मानवीयता तथा अतिमानवीयताधिकार का स्त्रोत मानव इकाई द्वारा अपनी शक्ति का अंतनिर्योजन (स्व-निरीक्षण) प्रक्रिया है ।