1.0×

अंश में जीवित पायी जाती है। ऐसी सहयोगितावादी प्रवृत्ति का आंशिक रूप ही देश कालीय विधि से प्रायोजित होता हुआ देखने को मिलता है। ऐसी उपकार विधाओं का विविध राज्य और धर्म परम्परा में होना, प्रवृत्त रहना पाया जाता है। इसी प्रकार एक समुदाय, दूसरे समुदाय; एक परिवार, दूसरे परिवार; एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिये उपकारी होने की बातें चर्चाओं में सुनने को मिलती हैं। कुछ घटनाएं भी देखने को मिलती है। इसका परिणाम किसी का किसी के साथ किया हुआ उपकार किसी दूसरे के लिए संकट के रूप में भी देखने को मिला। जैसे एक देश दूसरे देश के लिए सामरिक तंत्र वस्तुओं से उपकार करने की स्थिति में अन्य देश संकट की गुहार मचाता है। एक धर्म कहलाने वाले परम्पराओं द्वारा अपनी-अपनी जाति को बढ़ावा देने की कार्यवाहियों और मानसिकताओं से अपनी प्रसार प्रवृत्ति को अपनाने की स्थिति में दूसरा समुदाय संकटग्रस्त होता है। एक समुदाय परिवार, व्यक्ति अथवा देश शोषण पूर्वक सर्वाधिक धनार्जन कर लेता है, उस स्थिति में वे सब गुहार मचाते हैं जो असफल रहते हैं। यही आज की बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक गंभीर चर्चाओं की वस्तु रही है। इस प्रकार वर्तमान में जनचर्चाओं का मुद्दा अपराध, श्रृंगारिकता, गलती, राज्य, धर्म, अर्थ संबंधी जटिलताएँ ही हैं।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सभी राज्य संविधान (लिखित-अलिखित) गलती, अपराध और युद्ध को रोकने की मानसिकता का ताना बाना है। इसके विपरीत जनचर्चाओं में इन्हीं मुद्दों का सर्वाधिक प्रभाव होना पाया जाता है। जनचर्चा प्रवृत्ति के लिए अभी तक जितनी भी किताबें छपी हैं उनमें सर्वाधिक भाग इन्हीं प्रेरणाओं से अनुप्राणित होना पाया जाता है। इसी के साथ श्रृंगारिकता, भोग, बहुभोग, अतिभोग प्रवृत्तियाँ इनमें समायी रहती हैं। इसी प्रकार हमें देखने में पता लगता है कि जनसंघर्ष के लिए गलती, अपराध, युद्ध, शोषण, भोगवादी कार्यकलाप ही मुख्य कारण है। मानव संघर्ष से ग्रस्त होने की स्थिति में राहत पाने के लिए श्रृंगारिकता, भोग, अतिभोगवादी मानसिकता का प्रयोग करता हुआ देखा जा रहा है।

प्रचलित रुढ़ि, मान्यता, कल्पना, आकांक्षा जो ऊपर स्पष्ट किये गये हैं, उनके आधार पर जनचर्चा और जनाकांक्षा का निर्धारण इन्हीं के पक्ष विपक्ष में होना बनता है। इन सभी चर्चाओं का सार यही है जीना है, सुखी होना है, भय से मुक्त होना है, विपन्नता और प्रताड़नाओं से मुक्त होना है साथ ही साथ समृद्ध होना है। यही सब मानसिकता कल्पना के रूप में पहचान आने वाली आकांक्षाओं का हर मानव में परस्पर वार्तालाप, विचारणा, परिचर्चा, संवाद-वादों द्वारा किसी न किसी मान्यता के रूप में प्रतिबद्ध होना, उसी के आधार पर प्रवर्तनशील होना देखा

Page 8 of 141
4 5 6 7 8 9 10 11 12