का प्रयास हुआ है। ऐसे प्रयास का मूल स्वरूप विवेक और संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के साथ सार्थक अनुबंध और प्रमाण के अर्थ में सभी समीक्षा होगी।
विगत की समीक्षा की ओर चलने पर पता लगता है, ज्ञान, विज्ञान, विवेक, संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के साथ प्राकृतिक विधि से अथवा नियति विधि से समीक्षा अनुबंधित नहीं हो पाई जबकि अनुबंधित रहना आवश्यक है। यह सब स्पष्ट रहना आवश्यक है। स्पष्टता की आकांक्षा सदा-सदा से बनी हुई है। यही मुख्य मुद्दा है। इसमें स्पष्ट होना है, नहीं होना है पूछने पर स्पष्ट होने के पक्ष में मानव तैयार होता है, पहले स्पष्ट न होने के कारणों पर ध्यान देना आवश्यक है। इस मुद्दे पर सुस्पष्ट स्पष्टीकरण है भौतिकवादी विधि से मानव सुविधा-संग्रह के चक्कर में पड़कर व्यक्तिवादी हो गया, दूसरा आदर्शवादी विधि से भक्ति-विरक्ति में समर्पित होकर व्यक्तिवादी हो गया दोनों विधि से परिवार, समाज व्यवस्था और व्यवहार का तालमेल स्वरूप निष्पन्न नहीं हो पाई। इसलिए आगे शोध करने के लिए प्रयत्न किये। शोध से यही स्पष्ट हुआ मानव समझदार हो सकते हैं इसके लिए अध्ययन विधि ही पर्याप्त है। अध्ययन विधि से जो स्वीकृतियाँ हुई रहती हैं बोध रूप में उसे प्रमाणित करने की प्रवृत्ति स्वयंस्फूर्त होती है। फलस्वरूप हर मानव जागृत हो जाता है। जागृत होने के प्रमाण में ही स्वभाव गति प्रतिष्ठा मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित हो जाती है। इस विधि से मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था में ज्ञान, विज्ञान, विवेक का संगीतीकरण होना प्रमाणित होता है।
प्रस्तावित मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद से जागृति पूर्वक जीना सहज हो जाता है। इसलिए परिवार व्यवस्था में जीना बन जाता है इसकी आवश्यकता हर मानव को स्वीकार है ही। इसलिए यह एक आवश्यकता है। अखण्ड समाज में भागीदारी-समझदारी पूर्वक सम्पन्न होना स्वीकार होता है।
मूल्यांकन पूर्वक ही हर मानव आगे के कार्यक्रम को सुनिश्चित करता है। सार्थक बिन्दुएँ वर्तमान में स्पष्ट होते हैं। निरर्थक बिन्दुएँ समीक्षित होकर विगत हो जाते हैं। जो विगत हो गये वे सब वर्तमान में जो परिपूर्णता के रूप में प्रमाणित होना होता है उसमें विलय हो जाते है। जैसे सम्पूर्ण गलतियाँ समाधान में विलय होते हैं। इसी प्रकार से सार्थकता में असार्थकता विलय हो जाते हैं। यही समीक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है।