अर्थ का स्वरूप मन रूप में समाधान, तन रूप में क्रियाशीलता और व्यवहार, धन रूप में आहार, आवास, अलंकार, दूरदर्शन, दूरगमन, दूरश्रवण संबंधी वस्तुएँ और उपकरण। इन सब का सदुपयोग हो जाना अर्थ का सुरक्षा है। सदुपयोगिता का स्वरूप शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति के रूप में देखा गया है। मानव अपने में सुरक्षित होने का अनुभव तभी कर पायेगा। जब तन, मन, धन रूपी अर्थ को जब सदुपयोग कर पायेगा। उक्त तीनों प्रकार के अर्थ मानव ही परस्परता में उपयोग करता हुआ देखने को मिलता है। मानव अपने में सुरक्षा की चाहत को सदा से बनाए रखा किन्तु सुरक्षा के साथ होने का जो प्रमाण है वह दूर रह गया। हम ज्यादा से ज्यादा चाहत को ज्ञान मानकर चलते रहे। जबकि होना रहना ही ज्ञान का प्रमाण है यह तो सुनिश्चित हो गया है। सहअस्तित्ववादी मानसिकता पूर्वक ही समाधान और सुरक्षा पाकर सुख, शान्ति का अनुभव कर पाता है। इस तथ्य को भली प्रकार से हम जीकर देखे हैं। यह सार्थक हो जाता है।
भूमि: स्वर्गताम् यातु, मनुष्यो यातु देवताम्।
धर्मो सफलताम् यातु, नित्यम् यातु शुभोदयम् ॥
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