को सुरक्षित माना जाता रहा यह परस्पर युद्ध मानसिकता से जुड़ी हुई कृत्यों के परिणामों के स्वरूप में आज भी स्मरण दिलाया करते है।
युद्ध मानसिकता से कहीं पहुँच पायेगें? इसका उत्तर यही मिलता है इसकी कोई गम्य स्थली नहीं है। युद्ध से युद्ध की ही परियोजना है। यद्यपि कहा जाता है युद्ध शान्ति के लिए किन्तु ऐसी स्थिति कभी घटित हुई नहीं है। यह अवश्य हुआ है विगत में जनमानस में युद्ध और संघर्ष की जितनी प्राथमिकता रही उतना आज की स्थिति में नहीं है। आज भी किसी प्राथमिकता में भले चौथे-पाँचवें हो युद्ध संघर्ष की स्वीकृतियाँ सुरक्षा, परिवार रक्षा, देश रक्षा, राज्य रक्षा के अर्थ में स्वीकार होते हुए देखने को मिलती है। इस रक्षा विधियों में समरतंत्र को पंजीकरण किये जाने की विधि से अंतविहीन युद्धतांत्रिक सामग्री और प्रयोग परिणाम की चर्चा-संवाद जनमानस तक आ चुकी है। युद्ध में जितना भी धन नियोजन हुआ है उस मुद्दे पर जितना भी संवाद किया जाता है, किया गया है, उसमें युद्ध और उसके लिए धन का नियोजन निरर्थकता में ही समीक्षित हो पाता है। सार्थकता की ओर पहला मुद्दा यही है मानव कुल में युद्ध मुक्ति हो। पुनश्च प्रश्न चिन्ह होता है - युद्ध मुक्ति का आधार स्त्रोत क्या है? यहाँ पहुँचने पर यही आवाज निकलती है मानव को अध्ययन पूर्वक सटीक पहचाना जाए। जब तक समुदाय, वर्गों, व्यक्तिवाद के रूप में मानव जाति को पहचाना जाता रहेगा, तब तक युद्ध मुक्ति नहीं है। अतएव इसका उपाय यही है कि मानव अपने स्वरूप में समुदाय सीमाओं से मुक्त सर्व मानव एक इकाई है। चूँकि मानव शरीर सप्त धातुओं से रचित रहता है चाहे काले-पीले-भूरे या गोरे आदमी हो ठिगना हो, ऊँचा हो, मोटा या दुबला हो। इन सबमें सप्त धातुओं का निश्चित अनुपात देखने को मिलता है। शरीर रचना विधि हर भूरे, हर काले, हर गोरे में समान रूप में पहचानने में आता है।
मानव के हर रंग रूप संबंध में समानता संवाद का दूसरा मुद्दा बनता है कि हर मानव अपने पहचान को बनाए रखने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील है। पहचान प्रस्तुत करने की प्रवृत्तियाँ विभिन्न तरीके से प्रस्तुत होती हुई आंकलित होती है। परिस्थितियाँ भिन्न भिन्न रहते हुए प्रवृत्तियों में समानता होती ही है। इसी के साथ बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक संरक्षण में पोषण में भरोसा रखने वाली प्रवृत्ति मिलती है। संरक्षण पोषण के क्रम में न्याय की अपेक्षा प्रस्फुटित होती हुई देखने को मिलती है। किशोर अवस्था तक सही कार्य व्यवहार करने की इच्छाएँ आज्ञापालन, अनुसरण, सहयोग के अनुकरण के रूप में प्रवृत्तियों को देखा जाता है। यह बहुत अच्छे ढंग से समझ में आता है। यह जन चर्चा का विषय है। संवाद के लिए ये दोनों