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मुद्दों अच्छे ढंग से सोचने, परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण करने व्यवहार विधि से विचारों को सम्बद्ध करने में काफी उपकारी हो सकते है। तीसरा मुद्दा देखने को मिलता है कि हर मानव संतान शिशुकाल से ही जब से बोलना जानता है तब से जो भी देखा सुना रहता है उसी को बोलने में अभ्यस्त रहता है। इस ढंग से हर मानव संतान बाल्यकाल से ही सत्य वक्ता होना आंकलित होता है। जबकि सत्यबोध उनमें रहता नहीं है। शब्दों को बोलना ही बना रहता है। इससे यह भी पता लगता है मानव परम्परा का दायित्व है कि मानव संतान को सत्य बोध करायें। इसी के साथ सही कार्य, व्यवहार का प्रयोजन बोध सहित पारंगत बनाने की आवश्यकता है। न्याय बोध हर संतान को कराने का दायित्व परम्परा के पक्ष में ही जाता है। इस ढंग से बच्चों के लिए प्रेरक साहित्यों, कविताओं की रचना करने के लिए ये तीनों सार्थक प्रवृत्तियाँ है, मानव में प्रवृत्तियाँ प्रयोग और परीक्षण बहुआयामों में होना देखा गया है। ये सब जन चर्चा के लिए बिन्दुएं है। इसका निरीक्षण विधि से सोच समझ विधि से संवाद होना मानव के लिए शुभ है। संवाद की सार्थकता को पहले से ही हम स्वीकार चुके है कि सार्थकता के अर्थ में ही मानव संवाद उपकारी होगा। क्योंकि जितने भी संघर्ष के लिए, युद्ध के लिए, द्रोह-विद्रोह, साम-दाम-दंड-भेद रूपी कूटनीति के लिए, भय और प्रलोभन के लिए संवाद मानव ने किया सुदूर विगत से और अनेक कथा-परिकथा, प्रहसन माध्यम सब कुछ प्रयोग हुआ, सार्थकता शून्य रहा। क्योंकि ये सभी उपक्रम समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को सर्वसुलभ कराने की ओर सार्थक नहीं हो पाया। इतना ही नहीं स्वर्ग, नर्क, पाप-पुण्य के साथ ही बहुत कुछ कथा-परिकथा, जन चर्चाएँ सम्पन्न हुई। यह भी मानव आकांक्षा के अनुसार जो गम्यस्थली है वहाँ तक पहुँचाने में, पहुँचने में सर्वथा असमर्थ रही। और आगे भक्ति विरक्ति की ओर भी काफी उपदेश कथाएँ, पुण्य कथाएँ मानव कुल में प्रचलित रही। यह भी मानवापेक्षा सर्व सुख शांति की ओर कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पायी।

आज की स्थिति में सर्वमानव अथवा सर्वाधिक मानव सुविधा-संग्रह के अर्थ में, लक्ष्य में ही चर्चा, परिचर्चा, योजना, परियोजना की बातें सुनने में आ रही है। अभी ये भी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व की ओर दिशा नहीं पा रहे हैं। इसलिए जनमानस में परिवर्ती विद्या में संवाद की अपेक्षा आवश्यकता उत्पन्न होती है। क्या परिवर्तन के लिए शुरूआत करें इसके लिए मानवाकाँक्षा ही ध्रुव बिन्दु आती है। मानवाकांक्षा सर्वमानव में स्वीकृत है। इसे सर्वेक्षण पूर्वक भी निष्कर्ष निकाल सकते है। समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व के रूप में प्रमाणित होने के लिए सहमति सर्वमानव में अथवा सर्वाधिक मानव में होता ही है। इसी आधार पर जनसंवाद

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