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को मानवापेक्षा के ध्रुवों के ऊपर गतिशील बनाए रखने के लिए आवश्यकता बनती है। इसी आशय से हर नर-नारी सभी मुद्दों को दिशा देने में प्रवर्तित हो सकते है। यही जनसंवाद का आधार और प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति ही निश्चित दिशा को पाकर अपनी गति को निष्कर्ष के स्थली तक पहुँचा पाती है। निष्कर्ष के अनंतर ही योजना, कार्ययोजना स्पष्ट हो पाते है। फलस्वरूप मानवाकाँक्षा को हम प्रमाणित करने योग्य हो जाते है। यही व्यवहारात्मक जनवाद का आशय है।

मानवाकांक्षा के सार्थकता के अर्थ में ही जनसंवाद की सार्थकता को पहचानने की आवश्यकता है। इसमें सर्वप्रथम व्यवहार में ही सार्थक होने की बात आती है। व्यवहार में सार्थक होने के लिए संवाद में इस तथ्य को पहचाना जा सकता है कि परस्परता में ही व्यवहार होता है और प्राकृतिक ऐश्वर्य और मानव की परस्परता में ही उत्पादन कार्य सम्पन्न होता है।

व्यवहार कार्यकलाप में, उत्पादन कार्यकलाप में अनेकानेक विधाएँ जनसंवाद के लिए विषय बन जाती हैं। सबंध एक मुद्दा है यह सहअस्तित्व में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। धरती, हवा, पानी, जंगल, पहाड़, वन, वनस्पति, अन्न, औषधियों के साथ परस्पर सहअस्तित्व होना पाया जाता है। इतना ही नहीं सूरज, चाँद, सौर व्यूह, आकाश गंगा के साथ मानव का सहअस्तित्व है ही। इन सभी विधाओं में मानव संवाद अपने लक्ष्य के अर्थ में होने की आवश्यकता है।

सर्वप्रथम मानव की परस्परता में मानवकुल अनेक रंग, नस्ल के रूप में पहचाना जाता है। ऐसी परस्परताएँ जीव संसार रूपी अस्तित्व में रहती ही है। परस्परताएँ सहअस्तित्व सहज है। सहअस्तित्व में हम परस्परता को पाते है इसी क्रम में मानव में, से, के लिए अखण्ड समाज में परस्परताएँ उपलब्ध है ही। इन परस्परताओं को संबंध के रूप में पहचाना जाता है।

सबसे विशाल संबंध मित्र के रूप में, भाई के रूप में होना पाया जाता है। तर्क संवाद का भूमि बनता है मित्र, भाई संबंधों में हर विधाओं में समाधान को पहचानना महत्वपूर्ण कार्य है। समाधानों के अर्थ में संवाद होना स्वाभाविक है। ऐसे संवाद मानव लक्ष्य के साथ होने वाली दिशा के अर्थ में होना पाया जाता है। सम्पूर्ण संवाद लक्ष्य को पहचानने के क्रम में सार्थक होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा निर्धारित होने पर संवाद सार्थक होता है। फल परिणाम के रूप में लक्ष्यपूर्ति, उसकी निरन्तरता का होना संवाद सहित किया गया प्रवृत्ति, निष्कर्ष और प्रयासों

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