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पर मानवीयतापूर्ण आचरण, कार्य-व्यवहार पूर्वक व्यवस्था और समग्र व्यवस्था को प्रमाणित करता है। इस विधि से उक्त तीनों मुद्दों का प्रयोजन स्वीकृत होता है। इन तीनों मुद्दों पर जितना भी संवाद हो पाता है, सब सार्थक होना पाया जाता है।

सार्थकता मानव परम्परा में परिवार सभा व्यवस्था से विश्व परिवार सभा व्यवस्था के रूप में समग्र व्यवस्था को प्रमाणित करना होता है। ये सब संवाद का अथवा सार्थक संवाद का आधार है। सार्थकता का स्वरूप दूसरी विधि से समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ही है। तीसरी विधि से समझदारी, ईमानदारी, भागीदारी ही है। इन तीनों विधाओं का अंग-अवयव और विश्लेषण संवाद की वस्तु है। वस्तु अपने में वास्तविकता का प्रमाण है। व्यवस्था अपने में वस्तु है। समझदारी अपने में वस्तु है। समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व ये नित्य वस्तु है। हर मानव निश्चयता, निरन्तरता, अक्षुण्णता को स्वीकारता है। यह संवाद का एक मुद्दा है। हर निश्चयता क्यों, कैसे, कितना की कसौटी पर निर्धारित होती है। अत्याधुनिक युग में बेहतरीन जिन्दगी का नारा है। जो संग्रह–सुविधा पर आधारित है। संग्रह-सुविधा का तृप्ति बिन्दु नहीं है। प्राचीन अर्वाचीन स्वीकृतियाँ भक्ति-विरक्ति को बेहतरीन जिन्दगी मानी गई थी। इन दोनों नजरियों का व्यक्तिवाद में व रहस्य में अन्त होना सिद्ध किया जा चुका है। व्यक्तिवाद ना तो परिवार व्यवस्था का आधार है, ना ही समुदाय व्यवस्था का आधार, समाज व्यवस्था तो कोसों दूर है। जबकि मानव समझदारी, मानवाकांक्षा, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी पूर्वक वैभवित होता हुआ स्थिति में अखण्ड समाज में प्रमाणित हो जाता है। मानव परम्परा में अखण्ड समाज एक मुद्दा है ही अखण्डता ही अक्षुण्णता सहज सूत्र है मानवीयतापूर्ण आचरण व्याख्या है।

व्यवस्था सार्वभौम होने के आधार पर ही अखंड समाज, अखंड समाज के आधार पर ही सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना पाया जाता है। अभी तक जितने भी समुदाय, समाज के नाम से प्रस्तुत हुआ, उन सब में अन्तर्विरोध बना ही है। परस्पर समुदायों में विरोध, विद्रोह, सामरिक कल्पनाएँ बनी हुई है। यह सार्वभौम व्यवस्था व अखंडता का विरोधी है। जबकि हर समुदाय अखंडता, सार्वभौमता, अक्षुण्णता को अवश्य स्वीकारा रहता है। ऐसी स्वीकृतियों के साथ जीता हुआ मानव अपने में से बनायी हुई मान्यताओं के प्रयोजन को पहचानना चाहता ही है। साथ में सर्वाधिक विरोधी तत्व, धर्म और राज्य कहलाने वाली परम्परा ही है। हर मानव अपने में जागृति की ओर गतिशील होने के लिए सार्वभौम, अखंडता सूत्र बनी हुई है। जबकि धर्म और राज्य समुदाय गति विधि से अखंडता का नारा बताया करते हैं। ऐसा कोई समुदाय धर्म नहीं है,

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