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समाधान है, समाधान का फलन सुख है। इस क्रम में हर नर-नारी के सुखी होने का स्त्रोत नित्य वर्तमान है समीचीन भी है। समीचीनता का तात्पर्य है, हमारे प्रवृत्ति के आधार पर समाधान नित्य सुलभ है क्योंकि समझदारी को प्रमाणित करने का अरमान हर नर-नारी में समाहित है। समझदारी के फल के अनुसार समझदारी का प्रमाण हो पाता है।

समझदारी का स्वरूप अपने आप में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व दर्शन और जीवन ज्ञान का संयुक्त रूप है। अस्तित्व होने के रूप में वैभव है। पुन: नित्य वर्तमान है। दूसरी भाषा में होने की निरन्तरता ही वर्तमान है। हर परिणाम, परिवर्तन, विकास और जागृति के उपरान्त भी यथास्थितियाँ बनी ही रहती है ही यथास्थितियाँ होने का साक्षी है। इस प्रकार से यह भी हमें समझ में आता है कि हर वस्तु अपने मूल में अविनाशी है। कितने भी परिवर्तन परिणाम हो जाये। इस विधि से सम्पूर्ण अस्तित्व का स्थिरता अपने आप स्पष्ट हो जाता है। अविनाशिता के आधार पर अस्तित्व स्थिर होना स्पष्ट है। यही अस्तित्व सहज वैभव भी है। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण यथास्थितियों का वैभव ही अस्तित्व सहज वैभव है। यथास्थितियों के आधार पर निश्चयता समझ में आती है। दूसरी विधि से हर यथास्थिति का निश्चित आचरण है। क्योंकि यह स्पष्ट हो गया है कि विकासक्रम अपने आप में एक कतार है विकास अपने में एक स्थिति है। विकास क्रम में भी यथा स्थितियाँ होना पाया जाता है। विकास अपने में जीवन पद के रूप में होना पाया जाता है। जीवनपद में निश्चित आचरण अक्षय बल, अक्षय शक्ति विद्यमान है। ऐसे अक्षय शक्ति, अक्षय बल का वैभव जागृति के क्रम में भास अभास होता है और जागृति उपरान्त वैभव का निश्चयन और प्रयोजन प्रक्रिया भी स्पष्ट हो जाता है। इस आधार पर मानव को जागृतिक्रम और जागृति रूप में आज की स्थिति में पहचानना बन गया है। जागृति मानव को स्वीकृत होना देखा जाता है।

जागृति स्वयं में समझदारी का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन है। समझदारी ही समाधान है। समाधान स्वयं सुख होना स्पष्ट किया जा चुका है। इस प्रकार संवाद विधि से स्पष्ट होता है कि मानव सन् 2000 तक जागृति क्रम में ही जिया। जागृति की अपेक्षा बनी रही और जागृति के प्रस्ताव के रूप में मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद मानव के समक्ष उपस्थित हुआ। इससे यह स्पष्ट हो गया जीव संसार के सदृश्य मानव शरीर स्वस्थता के आधार पर जीने जाते है तो शरीर स्वस्थता का प्रयोग भोग और संघर्ष व युद्ध में ही होता है। अधिकाधिक उत्पादन-कार्य भी भोग और युद्ध के लिए ही हो रहे है। यह सभी समुदाय गत मानव का स्वरूप है जबकि मानव सुखी

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