मानव सुखधर्मी होना मानव परम्परा में, से, के लिए सौभाग्य है। क्योंकि सुखी होने के लिए व्यवहार व प्रयोग करना स्वाभाविक है। इसी क्रम में सही गलती होती रही। सही को मानव स्वीकारता आया। सहीपन को संवेदनशीलता में अनुकूलता प्रतिकूलता के रूप में पहचानते आया, यह प्रक्रिया और शोध हर मानव में होता आया। अनुकूलता में सुख भासना दूसरा सौभाग्य रहा। क्यों कि सुख भासने के आधार पर ही सुख की निरन्तरता की अपेक्षा, कल्पना और प्रयोग होना स्वभाविक रहा। जिसके आधार पर प्रमाणों का लोकव्यापीकरण उदय होता आया। इस प्रकार मानव के अपने सौभाग्य को पहचानने, प्रयोजनशील होने, प्रमाणित होने और प्रमाण परम्परा बनाने की सीढ़ियाँ अपने आप से लगी है। यह सब मानव प्रवृत्ति की सहज सीढ़ी है। इस क्रम में मानव, (हर नर-नारी) अपने प्रयासों को बनाए रखना देखा जा रहा है। इसी क्रम में संवेदनशीलता के अनुकूलता के मुद्दे में पराकाष्ठा यानि व्यसन में मनमानी पर पहुँचने के उपरान्त भी सुख की निरन्तरता का रास्ता अभी तक तय हो नहीं पाया। व्यवहारात्मक जनवाद दिशा निर्धारित करने के पक्ष में प्रस्तुत है।
सुख अर्थात् समाधान का अनुभव होना पहले जिक्र किया गया है। मानव ही अनुभव योग्य इकाई है। जीवों में संवेदनाओं की स्वीकृति होना और संवेदनाओं के विरोध को नकारते हुआ देखा जाता है। मानव भी ऐसा ही करता है। संवेदनाओं से जो सुख भासने का मुद्दा है वह मानव में ही होता है। क्योंकि जीवों में प्रतिकूलता होते हुए भी समाधान के लिए शोध-अनुसन्धान करता हुआ देखने को नहीं मिलते। इस प्रमाण से पता लगता है जीव संसार सभी प्रतिकूलता और अनुकूलता को स्वास्थ्य के अर्थ में ही पहचानता है। इसी आधार पर जीव संसार को जीने की आशा के आधार पर जीवनी क्रम में जीता हुआ पहचाना गया है। हर जीवों में जीने की आशा का होना हर मानव को बोध होता ही है। यद्यपि जीवों में जीवन, जीने की आशा को ही प्रमाणित कर पाया है। इसके मूल में यह भी पहचान में आया है कि शरीर को जीवन मानते हुए जीते है। इसलिए स्वस्थता के आधार पर अनुकूलता प्रतिकूलता को पहचाना करता है। यही जीव संसार का शरीर को जीवन मानने का प्रमाण है।
मानव भी या तो जीवों के सदृश्य शरीर को जीवन मानते हुए अथवा नहीं मानते हुए जीता है। इससे पर्याप्त ज्ञान न होना स्पष्ट हो गया। हर मानव सुखी होना चाहता है सुखी होने का नित्य स्रोत समाधान है। समाधान ही सुख के रूप में अनुभूत होता है। इसका मतलब यह हुआ समाधान ही सुख है। ऐसे समाधान के मूल में समझदारी का होना अनिवार्य है। समझदारी का फलन