सामरस्यता, जीवावस्था की प्रकृति में परस्पर जीने की आशा व स्वभाव सामरस्यता का प्रकटन स्पष्ट है । धर्म सामरस्यता ही मानव में अखंडता है । इसके अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं में पाये जाने वाले धर्म, स्वभाव, गुण एवं रूप की सीमा में सामरस्यता की पूर्णता को पाना संभव नहीं है, यदि संभव होता तो मानव के पीछे की अवस्थाओं में सहअस्तित्व की तृप्ति को जानना, मानना था, किन्तु इनका न होना देखा जा रहा है । फलत: अग्रिम विकास में संक्रमण एवं पद में आरुढ़ता दृष्टव्य है । मानव में ही धर्म सामरस्यता को पाने की संभावना स्पष्ट हुई है । इसको पा लेना ही मानव का परमोद्देश्य है, उसे सर्व सुलभ कर देना ही मध्यस्थ दर्शन का अभीष्ट है । धर्म सामरस्यता का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न होने से है ।
“मानव-जीवन सफल हो”
“अन्य में संतुलन प्रमाणित हो”
- ए. नागराज