लेखकीय
मानव में साम्यत: पाये जाने वाले रूप, बल एवं बुद्धि के योगफल से निर्मित पद एवं धन तथा इन सबके योगफल से उत्पन्न शिष्टताओं एवं भौगौलिक संरचनाओं व तदनुसार आवश्यकताओं के आधार पर परस्पर सामरस्यता की कामना पायी जाती है ।
शिष्टता की वैविध्यता, सम्पत्ति एवं स्वत्व की विस्तार-प्रवृत्ति की उत्कटता के अनुसार मानव में सीमाएं दृष्टव्य हैं । मानव में प्रत्येक सीमित संगठन, प्रधानत: भय-मुक्ति होने के उद्देश्य से हुआ है । सर्वप्रथम मानव ने जीव-भय एवं प्राकृतिक भय से मुक्त होने के लिये साधारण (आहार, आवास, अलंकार) एवं हिंसक साधनों का आविष्कार किया है । इन हिंसक साधनों से मानव की परस्परता में अर्थात् परस्पर दो मानव, परिवार वर्ग एवं समुदायों के संघर्ष में प्रयुक्त होना ही युद्ध है । इसके मूल में प्रधानत: संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था की वैविध्यता है । साथ ही उसके अनुसरण में स्वत्व एवं सम्पत्ति के विस्तारीकरण की प्रवृत्ति भी है । यही केन्द्र-बिन्दु है । मानव, मानव के साथ संघर्ष करने के लिये, प्रत्येक संगठित इकाई अर्थात् परिवार एवं वर्ग अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को श्रेष्ठ मानने के आधार पर स्वत्व और सम्पत्तिकरण के विस्तारीकरण को न्याय-सम्मत स्वीकार लेता है, फलत: उसी का प्रतिपादन करता है और आचरण एवं व्यवहार में प्रकट करता है । यही स्थिति प्रत्येक सीमा के साथ है ।
इस ऐतिहासिक तथ्य से ज्ञात होता है कि प्रत्येक सामुदायिक इकाई के मूल में सार्वभौमिकता को पाने का शुभ संकल्प है । उसे चरितार्थ अथवा सफल बनाने का उपाय सुलभ हुआ है, जो “मध्यस्थ दर्शन” के रूप में मुखरित हुआ है । यह मानवीयतापूर्ण सभ्यता, संस्कृति, विधि एवं व्यवस्था के लिए प्रमाणों के आधार पर वर्तमान बिन्दु में दिशा को स्पष्ट करता है ।
“वर्ग विहीन समाज को पाने के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति में पाई जाने वाली न्याय पिपासा, समाधान एवं समृद्धि वांछा एवं सहअस्तित्व में पूर्ण सम्मति को सफल बनाने की आप्त कामना के आधार पर मध्यस्थ दर्शन को प्रकट करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ है ।”
“सहअस्तित्व सूत्र व्याख्या ही स्वयं में सामरस्यता है ।” सामरस्यता की स्थिति रूप, गुण, स्वभाव एवं धर्म की साम्यता समाधान पर आधारित है, जो दृष्टव्य अर्थात् समझ में आता है, जैसे पदार्थावस्था की प्रकृति में रूप सामरस्यता, वनस्पति अर्थात् प्राणावस्था की प्रकृति में गुण