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गठनशील परमाणु अणुबंधन-भारबंधन सहित होता है । परमाणु में संकोचन - प्रसारण क्रिया में वृद्धि होने के फलन में परमाणु तत्काल समूह से मुक्त हो जाता है तथा गठनपूर्ण हो जाता है । यही जीवन परमाणु है । जीवन अणु बंधन, भार बंधन से मुक्त तथा आशा बन्धन से युक्त होना ही गठनपूर्णता का प्रमाण है । गठनपूर्णता का प्रमाण स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार के रूप में स्पष्ट हो जाता है । अस्तित्व में भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, जीवन क्रिया ये तीनों प्रकार की क्रियाएं सदा-सदा वर्तमान हैं । इनके अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने के क्रम में भौतिक, रासायनिक क्रिया से संक्रमित इकाई के रूप में चैतन्य इकाई, स्वयं को ‘जीवन’ के रूप में पहचानता है । इसको पहचान सहित प्रमाणित करने वाला मानव ही है । समूह से अलग होने का फल ही है कि परमाणु अपनी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई से अधिक विस्तार में कार्य करने में सक्षम होता है । प्रत्येक ‘जीवन’ शरीर द्वारा ही आशानुरुप उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील है तथा इसी हेतु वह अणु समूह से पृथक है ।

  • चैतन्य एवं जड़ का योग :- जड़ क्रियाओं में पाये गये क्षोभ का ही परिणाम चैतन्य अवस्था है क्योंकि श्रम का क्षोभ ही विकास के लिए कारण है, जिसके फलस्वरूप ही विश्राम की तृषा है ।
  • # उपरोक्त संबंध में अर्थात् जड़ परमाणु ही विकास के क्रम में संक्रमित होकर चैतन्यता प्राप्त करता है ।
  • चैतन्य में जो कुछ भी अध्यास की रेखाएं हैं, वह अपूर्ण हैं ही । चैतन्य इकाई अग्रिम विकास चाहती है । हर विकसित इकाई अविकसित इकाई का परस्पर जागृति के लिये पूरकता के अर्थ में उपयोग करती है । जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में, अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की शक्ति के बर्हिगमन होने पर ह्रास परिलक्षित होता है तथा शक्ति के अंतर्निहित होने पर विकास परिलक्षित होती है । अंतर्नियोजन का तात्पर्य प्रत्यावर्तन व स्व में निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है ।
  • अध्यास :- मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं सम्पन्न होती है उसकी अध्यास संज्ञा है ।
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