- # प्राणावस्था में अवस्थित रचना रुपी इकाईयाँ वनस्पति हैंं । इसके मूल में प्राण कोशाएं हैं । प्राणावस्था की इकाईयों की संरचना पदार्थावस्था की वस्तुओं से ही है । प्राणकोशाओं की परंपरा बनी रहे, इसके लिये रचनाएँ सम्पन्न होती रहती हैं । निश्चित प्रयास की रचना किसी एक निश्चित अवधि तक पहुँचती ही है, जिसे हम पेड़-पौधों के रूप में देखते हैं । अब इनकी बीजावस्था आती है । अस्तित्व को बचाए रखने के क्रम में प्रयास में ही प्राणावस्था में बीजों का निर्माण हुआ । बीज में पूरे वृक्ष की रचना विधि सहित प्राण कोशाएं निहित रहती हैं । फलस्वरूप ही बीज में पूरे वृक्ष की रचना विधि धारित किये हुए प्राणकोशाएं अवस्थित रहते हैं । इसीलिए बीज पुन: उसी प्रकार की संरचना करने में समर्थ होते हैं । यही बीज-वृक्ष न्याय कहलाता है ।
- ⁘ वनस्पतियों की जातियों की उत्पत्ति का कारण नैसर्गिक दबाव और संग्रहण प्रतिक्रिया के भेद से ही है ।
- ● यह मानव शरीर रचना की निपुणता सूक्ष्म प्राणकोशाओं में प्राणावस्था की रचनाओं से लेकर ज्ञानावस्था के शरीर रचना तक संपन्न होती है । प्राण कोशाएं अपने स्वरूप में समान होती हैं तथा रचना विधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । साथ ही प्राणावस्था की रचना में कुशलता के जितने भी वर्ग हैं उससे अधिक जीवावस्था में और इससे अधिक ज्ञानावस्था में है, क्योंकि शरीर रचना में जो मौलिक विकास हुआ है उतने ही पक्ष की स्पष्टता इन रचना विधियों में समाविष्ट हो चुकी हैं । सर्वोच्च विकसित रचना मानव शरीर में ‘मेधस’ ही है । समृद्धि पूर्ण मेधस तन्त्र युक्त मानव शरीर ही है ।
- # शरीर रचना के संबंध में वंश को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बीज संयोजन क्रिया अर्थात् वंश परंपरा प्राणावस्था, जीवावस्था तथा ज्ञानावस्था में अपने-अपने मौलिकता के साथ हैं । रचना के आधार पर, बीज संयोजन के संबंध में सैद्धांतिक साम्यता पाते हुए प्राणावस्था की इकाई की स्थिति एवं व्यवहार, जीवावस्था की स्थिति एवं व्यवहार तथा ज्ञानावस्था की स्थिति एवं व्यवहार में मौलिक अंतर हैं । अत: स्पष्ट है कि रचना विधि के आधार पर विविधताएँ हैं । यह स्वयंस्फूर्त क्रिया है ।
- # ज्ञानावस्था में मानव ही चारों अवस्थाओं का दृष्टा है । चैतन्य इकाई (मानव) में एकरूपता, जागृति को पाने हेतु प्राप्त समझ ही संस्कार है । यह समझ ही मानव के लिए समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने का कारण है । समझ के आधार पर व्यवहार
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