कार्य होता है । इससे सिद्ध होता है कि चैतन्य इकाई आशा, विचार, इच्छा एवं ऋतम्भरा व अनुभव का रूप ही हैं । उसी रूप की अभिव्यक्ति में जो सार्थकता है वह स्वयम् में अनुभव मूलक आशाओं, विचारों, इच्छाओं और ऋतम्भरा और अनुभव का बीज रूप और प्रमाण है । मानव तब तक जड़ पक्ष के अधिमूल्यन से मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक अपने में निर्भ्रमता को संपन्न करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता को सिद्ध नहीं कर लेता है । यह केवल जागृति से ही संभव है । ऐसी क्षमता, योग्यता और पात्रता सिद्ध होने तक जड़ पक्ष एवं इन्द्रिय संवेदनाओं पर नियंत्रण व संतुलन पाना स्वभाव सिद्ध नहीं हुआ । क्योंकि भ्रमित विधि से मानव शरीर से सुख पाने की अपेक्षा में आशा, विचार, इच्छा को फैलाता है । ऐसे में भ्रमित कार्यकलाप करता है । जागृति विधि से स्पष्ट होता है कि मानव वंश और जाति एक ही है तथा वैचारिक वैविध्यता भ्रमवश है ।
- ⁕ जैसे 1- भ्रमित मानव कुछ समय तक उदार-चित्त रहता है परंतु कुछ काल के पश्चात् कृपण हो जाता है । इसी प्रकार विभिन्न दिशाओं में विपरीत कार्य संपन्न करता हुआ मानव-जीवन परिलक्षित होता है । मानव का इन्हीं साविपरीत क्रियाओं में ही अपनी मानसिकता प्रदर्शन, प्रतिदर्शन करना सिद्ध हुआ है । यही भ्रमित मानव का स्वरूप है । पुनर्विचार का भी प्रेरक है ।
- ⁕ 2 - एक व्यक्ति अजागृत है, दूसरे जागृत व्यक्ति के संपर्क में आकर उसमें जागृति के लिए तृषा उत्पन्न होती है तथा उसमें जागृति प्रारंभ होती है । यह वातावरण के प्रेरणावश पाई जाने वाली जागृति क्रम और जागृति प्रक्रिया है ।
- ● जागृति की निरंतरता ही मानव परंपरा सहज महिमा है ।
- ● जागृति क्रम में संस्कार के दो भेद हैं :-
- ⁘ सुसंस्कार :- जागृति योग्य प्रवृत्तियाँ जो मानव द्वारा व्यवहृत हैं तथा विचार रूप में अवस्थित हैं । समृद्ध, समाधानित अथवा सार्थक प्रवृत्तियाँ सुसंस्कार हैं ।
- ⁘ कुसंस्कार :- जीवों के सदृश्य जीने की प्रवृत्ति ।