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चित्रण क्रिया संपादित होती रहती है यह शरीर मूलक विधि से संपादित होता है । यही भ्रमित विधि से होने वाली साढ़े चार (4½) क्रियाएं है ।

दिव्य मानव, देव मानव एवं मानव में आत्मा में होने वाले अनुभव प्रमाण सहित प्रथम परिवेशीय क्रियाकलाप पूर्ण सक्रिय हो जाता है । जिसके फलस्वरूप जीवनगत सभी क्रियाऐं अनुभवमूलक क्रियाकलाप सहित प्रमाणित होते हैं ।

  • प्रेरणा पाने की क्षमता हर परमाणु में निहित अंशों में है, क्योंकि संपूर्ण अंश सत्ता में सम्पृक्त हैं ।
  • ज्ञानावस्था की चैतन्य इकाई का जड़ शरीर प्रत्याशा के फल को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा पाये जाने वाली प्रवृत्तियों में से पुष्टि पक्ष को ग्रहण करता है ।
  • इन प्रवृत्तियों में जो कला पक्ष और ज्ञान पक्ष है, उसका आस्वादन सुख के रूप में चैतन्य पक्ष ही करता है ।
  • चैतन्य पक्ष के जागृति का जो कारण है, उसे संस्कार संज्ञा है ।
  • जड़ पक्ष के परिणाम का जो कारण है, उसे अध्यास या वंशानुक्रम संज्ञा है जो गठनपूर्णता तक है ।
  • संस्कार :- 1. पूर्णता के अर्थ में स्वीकृतियाँ ही संस्कार है। यही मानव का प्रारब्ध है।
  1. 1. प्रमाणित होने के लिए पहले से जो समाधान के अर्थ में प्राप्त है, वह संस्कार है । समाधान के अर्थ में ज्ञान-विज्ञान-विवेक ही प्राप्त रहता है ।
  2. 2. पूर्णता के अर्थ में कृतियों को साकार करने में क्रियाकलाप सहित प्रवृत्तियाँ और समझदारी ही संस्कार है ।
  3. 3. पूर्णता के अर्थ में कायिक, वाचिक, मानसिक व कृत, कारित, अनुमोदित विधि से की गई कृतियाँ संस्कार है ।
  • प्रारब्ध :- जो जितना जान पाता है उतना चाह नहीं पाता; जितना चाह पाता है उतना कर नहीं पाता; जितना कर पाता है उतना भोग नहीं पाता । जितना भोगा नहीं जाता वह प्रारब्ध है ।
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