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  • # उपरोक्तानुसार विवेचना के आधार पर ही इस वैविध्यता से पीड़ित संसार के मूल में प्रत्येक मानव अपना भी मूल्यांकन करना चाहता है, क्योंकि स्वयं का मूल्यांकन यदि सही नहीं है तो उस स्थिति में अध्ययन के लिये आवश्यक सामर्थ्य को संजो लेना संभव नहीं है - जैसे एक रूपया के मौलिकता को पूरा-पूरा समझे बिना दो एवं उसके आगे वाले संख्या की गति एवं प्रयोग नहीं है । एक रूपया के मूल्य को 1 से 99 पैसे तक मूल्यांकन करने की स्थिति पर्यन्त उस एक रूपया का पूर्ण मूल्यांकित ज्ञान उस इकाई में प्रादुर्भूत नहीं हुआ ।
  • अत: मानव को अपने विकास की दृष्टि से स्वयम् का मूल्यांकन करना प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण कार्यक्रम सिद्ध है । यही ज्ञानावस्था की विशिष्टता है ।
  • अध्ययन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता के अर्थ में ही संपन्न होता है । सर्वप्रथम व्यापक वस्तु में समाहित संपूर्ण एक-एक वस्तुओं का वर्गीकरण विधि से अध्ययन संभव हो गया है । यही चार अवस्था, चार पदों में अध्ययन गम्य है । क्रिया का अध्ययन विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में बोधगम्य होने की व्यवस्था है । इसी के साथ-साथ रूप, गुण, स्वभाव व धर्म का अध्ययन होना आवश्यक है । चारों अवस्था, चारों पदों में स्पष्ट है । विकास का अध्ययन परमावश्यक है । विकसित इकाई के रूप में ‘जीवन’ का अध्ययन संपन्न होता है । और जीवन में ही जागृति क्रम, जागृति का स्पष्ट प्रमाण होता है ।

ऐसे विकासात्मक अध्ययन में मात्र तात्विकता का वर्णन बोधगम्य न होने के कारण (अनुमान करने योग्य स्वीकृति न होने के कारण) तर्क की सहायता आवश्यक है । यहाँ तर्क की आवश्यकता इसलिए प्रतीत होती है और नियोजित की गई है कि वांछित (जिसे सिद्ध करना है) की कल्पना पहले से साधक में (जिसे प्राप्त करना है) पूर्वाभ्यास रूप में प्रतिष्ठित करना है ।

सर्वप्रथम अध्ययन; द्वितीय स्थिति में प्रयोग व अभ्यास; तृतीय स्थिति में अनुभव, प्रमाण प्रमाणित होना ही उपलब्धि और सार्थकता है । विकास और जागृति संबंधी अध्ययन मानव कुल के लिए अथवा मानव कुल सुरक्षित रहने के लिए परमावश्यक है । सर्वमानव में समझदारी की प्यास है ही । यही पात्रता सर्वमानव में होने का प्रमाण है इसे तर्क संगत विधि से, अर्थ बोध सहित स्थिति सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, वस्तुगत

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