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  • सृष्टि में क्रिया अनन्त है एवं व्यापक सत्ता में सम्पूर्ण सृष्टि संपृक्त है ।
  • # प्रेरित होने के फलस्वरूप ही समस्त पदार्थ श्रम में रत है । श्रम के बिना कार्यकलाप फल परिणाम में ह्रास एवं विकास सिद्ध नहीं होता ।

इसीलिए:-

  • पदार्थावस्था + श्रम = प्राणावस्था ।
  • प्राणावस्था + श्रम = जीवावस्था ।
  • जीवावस्था + श्रम = भ्रमित ज्ञानावस्था ।
  • भ्रमित ज्ञानावस्था + श्रम = विश्राम अर्थात् सहअस्तित्व में अनुभूति ।
  • श्रम - श्रम का तात्पर्य अधिक उन्नत अर्थात् यथास्थिति से अधिक उन्नत यथास्थिति से है। ऐसी यथास्थिति विकास क्रम, जो कि भौतिक-रासायनिक वस्तुओं के रूप में है । विकास चैतन्य पद अथवा जीवन पद के रूप में अध्ययन सुलभ है । ऐसे जीवन जागृति क्रम, जागृति के रूप में अध्ययन, बोध व अनुभवगम्य है । अनुभवगम्य का अर्थ व्यवहार परम्परा में प्रमाणित होने से है ।
  • # श्रम के क्षोभ के बराबर ही विश्राम की तृषा है क्योंकि ज्ञानावस्था में ‘समस्त श्रम’ विश्राम सहज गन्तव्य, यथास्थिति और उसकी निरंतरता के लिये है ।

“सर्व शुभ हो”

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