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  • अतिसंतृप्त या परमानंद :- आत्मा जब सहअस्तित्व में अनुभूत होती है, तब इसके नित्य प्रभाव को परमानन्द संज्ञा है ।
  • जब आत्मा की क्षमता, योग्यता और पात्रता व्यापकता की अनुभूति करने योग्य सिद्ध हो जाती है उसी समय से सत्य की अविरत अनुभूति बनी रहती है ।
  • सहअस्तित्व ही अनुभव में, से, के लिए वस्तु है ।
  • आनंद :- सत्यानुभूत आत्मा का बुद्धि पर जो प्रभाव है वह आप्लावन है, यही आनंद है ।
  • चिदानंद (संतोष) :- सत्यानुभूत आत्मा का चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है । इसे आह्लाद या चिदानंद संज्ञा है ।
  • शांति :- सत्यानुभूत आत्मा का वृत्ति पर जो प्रभाव पड़ता है, इसे उत्साह या शांति संज्ञा है ।
  • सुख :- सत्यानुभूत आत्मा का मन पर जो प्रभाव पड़ता है इसे उल्लास या सुख संज्ञा है ।
  • मानव के लिये एकसूत्रता ही व्यवहारिक, समाधानकारक, संतुलनकारी तथा (सर्वोत्तम सुख) स्वर्गमय है ।
  • संतुलन :- नैतिक एवं व्यवहारिक दोनों पक्षों का अतिरेक न होने देना ही संतुलन है ।
  • न्याय, धर्म एवं सत्यपूर्ण व्यवहार ही एकसूत्रता का सूत्र है ।
  • परधन, परनारी/परपुरुष, परपीड़ा से मुक्त व्यवहार तथा स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष तथा दया पूर्ण कार्य-व्यवहार में जो निष्ठा है यही समस्त व्यवहार एक से अनन्त तक न्याय पूर्ण व्यवहार है ।
  • जो आहार, विहार और व्यवहार (कायिक, वाचिक, और मानसिक) संग्रह, द्वेष, अभिमान, अज्ञान एवं भय से मुक्त तथा असंग्रह, स्नेह, सरलता, विद्या (विज्ञान एवं विवेक) और निर्भयता युक्त हो वह ही न्याय और धर्म की एकसूत्रता है । अन्यथा में न्याय और धर्म तथा सत्य की विश्रृंखलता है । भ्रमवश व्यक्तिवाद एवम् समुदायवाद है ।
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