1.0×
  • # न्याय :- मानवीयता के संरक्षणात्मक नीतिपूर्वक किये जाने वाले व्यवहार व्यवस्था ही न्याय है ।
  • अतिमानवीय स्वभाव, विषय एवं दृष्टि की जागृति के लिए समुचित अवसर एवं साधन को नियोजित करने वाली व्यवस्था एवं वैयक्तिक प्रयास को अतिमानवीय सामाजिक व्यवस्था कहते हैं । अखण्ड समाज, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था व मानव सहज प्रमाण परम्परा ही अतिमानवीय सामाजिक व्यवस्था है ।
  • अतिमानवीय स्वभाव :- दया, कृपा और करुणा ही अति-मानवीय स्वभाव है ।
  • दया :- जिनमें पात्रता हो, परंतु उसके अनुरूप वस्तु उपलब्ध न हो, ऐसी स्थिति में उसे वस्तु उपलब्ध कराने हेतु की गयी प्रयुक्ति ही दया है ।
  • कृपा :- वस्तु समीचीन है पर उसके अनुरूप पात्रता अर्थात् मानवीयतापूर्ण दृष्टि नहीं है, उनको पात्रता उपलब्ध कराने वाली प्रयुक्ति कृपा है ।
  • करुणा :- जिनमें पात्रता न हो और वस्तु भी समीचीन न हों, उनको उसे उपलब्ध कराने वाली प्रयुक्ति ही करुणा है ।
  • अतिमानवीय विषय :- सत्य (सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य)
  • अतिमानवीय दृष्टि :- मात्र सत्य ।
  • न्याय व अन्याय सहित लक्ष्य भेद से संपर्क सफल एवं असफल सिद्ध होता है, जिससे सामाजिकता का विकास व ह्रास सिद्ध होता है ।
  • सम्पर्क :- जिस परस्परता में प्रत्याशाएँ ऐच्छिक रूप में निहित है, ऐसे मिलन की संपर्क संज्ञा है ।
  • ऐहिक उद्देश्य (जीव चेतना वश) से संबंध नहीं है । संबंध आमुष्मिक उद्देश्य (विकसित चेतना, मानव, देव मानव दिव्य मानव सहज प्रमाण) पूर्वक ही हैं, जिनका निर्वाह ही जागृति है ।
  • संबंध :- जिस परस्परता में प्रत्याशाएँ पूर्णता के अर्थ में पूर्व निश्चित रहती हैं, ऐसे मिलन की संबंध संज्ञा है ।
Page 21 of 219
17 18 19 20 21 22 23 24 25