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  • # उपरोक्त सूत्र के विपरीत नियमों का पालन ही मानव के लिये अनावश्यकीय व्यवहार एवं विचार है ।
  • # उपरोक्तानुसार समस्त जीव अर्थात् पशु-पक्षी, वैषयिक-सामुदायिक प्राणी तथा मानव न्यायिक-सामाजिक इकाई सिद्ध होते हैं ।
  • # सामान्यत: पशुओं की सामुदायिकता का भास भय की अवस्था में परिलक्षित हुआ है । किसी भी स्थिति में पशुओं की सामुदायिकता का भास अध्ययन, उत्पादन तथा व्यवस्था कार्य में परिलक्षित नहीं हुआ है जबकि जागृत मानवों में सामाजिकता का मूल आधार समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में जीना है ।
  • # पशुओं में आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये चार विषय ही प्रसिद्ध हैं, जबकि जागृत मानवों में सामान्यतः ऐषणात्रय अर्थात् पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा पाई जाती है तथा विश्राम सहज रूप में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में प्रमाण होना पाया जाता है ।
  • विश्राम ही दु:ख का उन्मूलन तथा भ्रम से मुक्ति ही मोक्ष है ।
  • सृष्टि का चरम लक्ष्य विश्राम है, इसका प्रमाण जागृत मानव परम्परा ही है । इसलिए हर भ्रमित मानव भी विश्राम के लिए व्याकुल रहता है । समाधान ही विश्राम है । यही अभ्युदय है ।
  • सहअस्तित्व में चारों अवस्थाओं और चारों पदों का अपने-अपने लक्ष्य के लिए किया जाने वाला क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण सृष्टि है ।
  • मानवेतर जीवों में जो ज्ञान उपयोग में आया है, उसे सामान्य ज्ञान संज्ञा है । मानव द्वारा जो व्यवहृत है, वह दो वर्ग में परिलक्षित है :-

(1) ज्ञान सम्मत विवेक और (2) विज्ञान ।

  • विवेक और विज्ञान सम्पन्न होने के कारण ही मानव ने विश्राम को पहचाना है तथा इसके लिए समुचित प्रयोग भी किया है, जो सृष्टि के श्रम का उद्देश्य एवं फल भी है ।
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